विवाद से विश्वास की ओर बढ़ो, एमएसपी तो मिल ही जायेगी !

कल ही शीर्ष अदालत ने भी कहा कि "विश्वास की कमी है. सरकार और प्रदर्शनकारी किसानों के बीच "विश्वास की कमी" प्रतीत होती है." बतौर नजीर कल ही देखने को भी मिला कि कैसे भारतीय राजनीति के दो महत्वपूर्ण खिलाड़ी विवाद से विश्वास की ओर बढे, सत्ता का समर्थन किया,  मोदी जी में विश्वास जताया और "सरकार ने सत्ता का समर्थन मूल्य चुकाया" ! 

सीधी सी बात है आंदोलनकारी किसानों को व्यापक हित देखना चाहिए।  राजनीति के दो महत्वपूर्ण स्टेक होल्डर जेडीयू के नीतीश कुमार और टीडीपी के नायडू यही देखकर ही तो एनडीए में बने रहे, वर्ना उन पर डोरे तो खूब डाले गए I.N.D.I.A. द्वारा सरकार बनने से पहले से लेकर कल बजट आने तक ! और बजट आने के बाद विपक्षी गठबंधन ने गिरगिट की तरह रंग बदल लिया ! कल तक "एन" के दोनों 'एन' के लिए पूरी इज्जत बख्शी जा रही थी, मोदी सरकार के दिन गिने जा रहे थे. बिहार और आंध्र प्रदेश को विशेष पैकेज के रूप में भारी भरकम बजट क्या मिला, विपक्षी राग ही बदल गया. किसी ने इसे "सरकार बचाओ" बजट कहा, तो किसी ने रिश्वत बता दी ! भूल गए बिहार में चुनाव सामने ही है, बिहारियों को रिश्वतखोर बताना कितना महंगा पड़ेगा ?  

किसानों पर भी तो डोरे ही डाले जाते रहे हैं, कल ही दस बारह किसानों को "उन्होंने" संसद में मिलने के लिए बुला लिया. जाहिर सी बात है संसद परिसर में एंट्री नियमानुसार होती है. अपेक्षित अनुपालन होने तक एंट्री बाधित हुई और इसी पर पॉलिटिक्स (dirty or good) की गई ! कहा गया किसान विरोधी सरकार है इसलिए एंट्री नहीं दी गई ! आंदोलनकारी किसानों को इसी पॉलिटिक्स (dirty or good) को समझना होगा. संसद में प्रवेश के लिए सुरक्षा की दृष्टि से प्रोटोकॉल होते हैं, जिन्हें इग्नोर करने से यदि कोई अवांछित घटना हो गई, तो यही विपक्ष लापरवाही का आरोप लगा देगा ! उन्हें बुलाया था और संसद में ही उनसे मिलना था, तो पूर्व में ही नियमों का अनुपालन कर लेते/करवा  लेते ! भई ! कैसे करते ? फिर पॉलिटिक्स कैसे चमकती ? 

फिर कोई इन आंदोलनकारी किसानों से पूछे मिल कर क्या हुआ ? आश्वासन भर ही मिला होगा आप लोगों की बात संसद में उठाएंगे, हमारी सरकार आएगी तो आपकी मांगें पूरी करेंगे आदि आदि ! तो संसद में कितनी गंभीरता रह गई है, किसी से छिपा नहीं है ! सिर्फ और सिर्फ एक दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिश होती है, विरोध के लिए हर बात का, हर कहे का, हर किये का विरोध करना ही परम धर्म है विपक्ष का ! 

विशेष राज्य के दर्जे सरीखी लीगल गारंटी तो बिहार और आंध्र को भी नहीं दी सत्ता ने, लेकिन एक विन विन फार्मूला तो दिया और दोनों स्टेक होल्डर संतुष्ट भी हुए ! यही समझना होगा किसानों को ! पहली बात वे इस मुग़ालते में न रहें कि देश के सभी किसानों की वे नुमाइंदगी करते हैं ! दूसरी बात एमएसपी की लीगल गारंटी दिए जाने के और न दिए जाने के तर्क वितर्क हैं, जिन पर पारस्परिक तालमेल से ही कोई सौहार्दपूर्ण समाधान निकल सकता है, जिसे विन विन सिचुएशन कहा जाएगा ! यदि लीगल गारंटीड एमएसपी इतना स्ट्रैट फॉरवर्ड मसला होता तो, यदि मान भी लें कि वर्तमान सरकार किसान विरोधी हैं, 2014 तक जिनकी कथित किसानों की हितैषी सरकारें थीं, उन्होंने क्यों नहीं दे दी ? 
आंदोलनकारी किसानों और सरकार के मध्य गतिरोध कहें या जिच या स्टेलमेट (शतरंज की भाषा में), बना हुआ है तो जैसा सुप्रीम न्यायालय ने भी कहा, तटस्थ अंपायरों की महती आवश्यकता है ! निःसंदेह वे तटस्थ किसी भी पार्टी के नेता या प्रो पार्टी/एंटी पार्टी एक्टिविस्ट तो नहीं ही हो सकते ! सीधी सी बात है, तटस्थ एक्सपर्ट्स की कमी नहीं है, ज़रूरत नाम आगे लाने की हैं. शत प्रतिशत तटस्थता सुनिश्चित करने के लिए रूल आउट प्रोसेस बनाया जा सकता है ; कहने का मतलब प्रस्तावित नाम पर यदि कोई भी पक्ष, किसान या सरकार, आपत्ति ले या उठायें, उसे रूल आउट कर दें ! यही तो न्यायालय में भी होता है, जहां अधिकतर ऐसे मामलों में संबंधित न्यायाधीश स्वयं ही अस्वीकार कर देते है, मुकर जाते हैं.    

एमएसपी विवाद तो दशकों से चला आ रहा है, जिनमें से एक दशक मोदी काल का भी है. तो आंदोलनकारी क्यों न विवाद से विश्वास की ओर बढ़ें ?  न्यूनतम समर्थन मूल्य की एक ऐसी व्यवस्था तैयार की जाए जिसके तहत किसानों को भी फायदा हो और सरकार भी राहत महसूस करे ! क्या पता आने वाले समय में संबंधित बाजार, संसाधन और वैकल्पिक कृषि के उत्तरोत्तर विकास से एमएसपी की ज़रूरत ही ख़त्म हो जाए ? एक आदर्श स्थिति तो वही होगी !                            

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Prakash Jain

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