कोटा के अंदर कोटा के सुप्रीम फैसले से राजनीतिक पार्टियों की सांस रुक सी गई है !

संदेह की कोई गुंजाइश नहीं है इस बात में कि अंततः फैसला राजनीति की भेंट ही चढ़ेगा ! आजकल मेटाफोरिक होना राजनीतिक गुण है ; उपयुक्त न भी हों, साम्य न भी हों, श्रोताओं को रुचिकर न भी लगे, नेता गण प्रस्तुत करने से बाज नहीं आते ! हालिया चक्रव्यूह, पद्मव्यूह जैसे रूपकों ने खूब सुर्खियां बटोरी हैं ! प्रसिद्ध कवि स्वर्गीय हरिवंश राय बच्चन की कविता का शीर्षक "अग्निपथ" खूब कॉपी पेस्ट होता रहा है. भारत सरकार ने सेना में रंगरूटों की भर्ती की एक योजना को यही नाम दिया, सटीक भी बैठा ! इसी से प्रेरणा लेते हुए यदि कहें कि शीर्ष अदालत का यह फैसला राजनीतिक दलों के लिए "अग्निपथ" है  लथपथ लथपथ होने के लिए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी.

और यही हो भी रहा है. एससी और एसटी के आरक्षित वर्ग को कोटा के भीतर कोटा देने और साथ ही ओबीसी आरक्षण के सिद्धांत को इस आरक्षित वर्ग में भी लागू कर क्रीमीलेयर का आरक्षण समाप्त करने के अप्रत्याशित फैसले के बाद दलों की उलझनें बढ़ गई हैं ! वे तय ही नहीं कर पा रहे हैं स्वागत करें या विरोध ! इसी तारतम्य में इंस्पिरेशनल होना बनता है, याद आती है कुछ पंक्तियाँ कहीं जो पढ़ी थी, रचयिता के सौजन्य से - 

काश मैं भी परिंदा होता, ना मेरी कोई सरहद होती 

ना मेरा कोई देश होता , ना ऊँच नीच की बात होती 

ना गोरे काले का भेद होता,  ना इसका होता ना उसका होता 

आसमान सबके लिए समान होता ,ना आरक्षण का झंझट होता   

ना सिफारिशों का पंगा होता , ना अपना अस्तित्व खोता 

काश मैं परिंदा होता !                                    

सबसे ज्यादा समस्या उन्हें हैं जो आज संपन्न है, धनाढ्य हैं, परंतु जाति से दलित हैं, आदिवासी हैं, वंचित हैं. अब तक  जातिगत का लाभ उस जाति के संपन्न लोग ही उठा रहे हैं, जो दशकों से चला आ रहा है ! पॉलिटिक्स तो जीता जागता उदाहरण है इसका ! मौक़ा किन्हें मिल रहा है ? वे जो करोड़पति हैं, चक चक हैं, आरक्षित सीटों पर उन्हें ही मौका मिलता है, बपौती भी है. नाम लें तो किस किस का लें, हर पार्टी में एक सा ही हाल है  मसलन खड़गे जी, कांग्रेस (20 करोड़) और उनके पुत्र प्रियंक खड़गे (16 करोड़) हैं, कुमारी शैलजा, कांग्रेस  (24 करोड़) पुत्री हैं कांग्रेस से ही चार बार सांसद रहे स्वर्गीय चौधरी दलवीर सिंह की, प्रणति पुत्री सुशील शिंदे भी करोड़पति हैं और पिता तो जाने माने मंत्री रहे थे कांग्रेस के ही. अन्य पार्टियों का भी यही हाल है, चाहे क्षेत्रीय पार्टी हों या फिर नेशनल ही क्यों न हो ! करोड़ पति आदिवासी नेता हेमंत सोरेन विरासत की ही देन है. कमोबेश यही हाल बीजेपी का भी है, हालांकि एससी एसटी जन प्रतिनिधियों में ज्यादातर बीजेपी के ही हैं. तेलगु देशम के तो तक़रीबन सारे के सारे करोड़पति ही हैं. तभी तो पॉलिटिकल की चिंता का सबब है शीर्ष न्यायालय का निर्णय ! 
सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने अनुसूचित जातियों के भीतर भी असमानता के मद्दे नजर आधारभूत समानता प्राप्त करने के उद्देश्य से कोटा के अंदर कोटा को जायज ठहराया है, परंतु शर्तें लागू है. और यही शर्तें जी का जंजाल बन बैठी हैं पार्टियों के लिए ! जहां संविधान पीठ ने  आरक्षण का लाभ देने के लिए एससी/एसटी को उनके पारस्परिक पिछड़ेपन के आधार पर विभिन्न समूहों में उप-वर्गीकृत करने के राज्यों के अधिकार को बरकरार रखा है, वहीं पीठ के माननीय सदस्यों ने शर्तें लागू कर दी, मसलन  न्यायमूर्ति बीआर गवई ने अपने सहमति वाले फैसले में कहा कि आरक्षण का अंतिम उद्देश्य देश में वास्तविक समानता को साकार करना है और एससी/एसटी के बीच क्रीमी लेयर की पहचान की जानी चाहिए और उन्हें आरक्षण के लाभों से बाहर रखा जाना चाहिए. राज्य को एससी एसटी श्रेणी के बीच क्रीमी लेयर की पहचान करने और उन्हें आरक्षण के दायरे से बाहर करने के लिए एक नीति विकसित करनी चाहिए. सच्ची समानता हासिल करने का यही एकमात्र तरीका है. वर्गीकरण से सहमति जताते हुए न्यायमूर्ति विक्रम नाथ ने भी कहा कि ओबीसी पर लागू क्रीमी लेयर सिद्धांत एससी पर भी लागू होना चाहिए, लेकिन एससी के क्रीमी लेयर को आरक्षण के दायरे से बाहर रखने के मानदंड ओबीसी पर लागू मानदंडों से अलग हो सकते हैं. सहमति का ही फैसला देने वाले एक अन्य न्यायमूर्ति पंकज मिथल ने भी इसी तरह की राय दोहराते हुए कहा कि आरक्षण किसी श्रेणी में केवल पहली पीढ़ी के लिए होना चाहिए. साथ ही स्पष्ट भी किया कि आरक्षण किसी श्रेणी में केवल पहली पीढ़ी के लिए होना चाहिए और यदि दूसरी पीढ़ी आ गई है तो आरक्षण का लाभ नहीं दिया जाना चाहिए और राज्य को यह देखना चाहिए कि आरक्षण के बाद दूसरी पीढ़ी सामान्य श्रेणी के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ी हुई है या नहीं. न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा ने कहा कि एससी/एसटी के बीच क्रीमी लेयर की पहचान संवैधानिक अनिवार्यता होनी चाहिए. 

जहां तक ओबीसी का सवाल है, ओबीसी क्रीमी और नॉन क्रीमी क्लासेस का अंतर सालाना आमदनी के आधार पर होता है.  यदि किसी ओबीसी ओबीसी क्रीमी लेयर को कोई भी सरकारी लाभ प्राप्त नहीं होता और वह अब रिजर्व कोटे मैं नहीं आते. उनको आम कैटेगरी के बराबर ही माना जाता है. कुछ समय में परिवार की आमदनी की लिमिट बढ़ाकर रु.6 लाख कर दी जाएगी जिसके ऊपर आमदनी वाले परिवारों को क्रीमी ओबीसी लेयर माना जाएगा ; हालांकि यह मापदंड हर राज्य के लिए अलग अलग हो सकता है, वस्तुतः सुप्रीम कोर्ट ऐसा ही कुछ एससी और एसटी आरक्षण में भी चाहती है. यही वजह है जहां राज्यों को समुचित दिशा निर्देश देते हुए फ्री हैंड दिया है, वहीं न्यायिक सुरक्षा का अधिकार अपने पास सुरक्षित रखा है.      

इंडियन पॉलिटिक्स में दो गठबंधन हैं ; जहां सत्तासीन गठबंधन में एकाध अलग सुर हैं, वहीं विपक्षी गठबंधन तो समूचा बंटा दिख रहा है. धन्ना सेठ  लालू  यादव के वारिस तेजस्वी इस फैसले का विरोध कर रहे हैं, उनके हिसाब से एससी एसटी में क्रीमीलेयर का मामला हो ही नहीं सकता. दूसरी तरफ डीएमके ने इस फैसले का स्वागत किया है. कांग्रेस को तो मानो सांप सूंघ गया है, चुप्पी जो साध ली है. "जिसकी जितनी संख्या, उसकी उतनी भागीदारी" का नारा फेल होता जो दिख रहा है ! क्योंकि भागीदारी तय करने में आर्थिक स्थिति को अनदेखा कर मनमानी कैसे कर पाएंगे ? 

जबकि पॉलिटिकल क्लास सहम सी गई है. आरक्षण के लाभार्थियों का झूठमूठ दावा नहीं चलेगा कि  के उनके पूर्वजों पर किसी ने ज्यादती की थी. सार्वजनिक महत्व पर व्यक्तिगत लालच तजना ही पड़ेगा, यदि सुप्रीम 'कहे' को अक्षरशः अपनाया गया तो !  हालांकि उम्मीद कम ही है !  उल्टे सुप्रीम कोर्ट के वर्गीकरण की बात करेंगे नेता लोग ! किसी दलित सांसद आज़ाद रावण ने पूछ भी लिया है , “सुप्रीम कोर्ट के सात जजों में कितने दलित , आदिवासी थे ? क्या उन्हें हमारे दर्द का एहसास है ? सबसे पहले वर्गीकरण सुप्रीम कोर्ट से शुरू होना चाहिए ! जाती जनगणना करें और संख्या के हिसाब से हिस्सा दें !"

आदर्श स्थिति तो यह होगी कि राजनीतिक पार्टियां सुप्रीम कोर्ट के आदेश को शिरोधार्य करते हुए सभी आरक्षित सीटों से चुने गए अपने अपने नेताओं का विदाई समारोह आयोजित करें,  विरासत में मिली सांसदी या विधायकी का भी त्याग करवाए ! 

परंतु जो होगा उसका अंदेशा मिलने लगा है ! विपक्ष सत्ता पर आरोप लगाएगा कि सरकार ने जान बूझ कर लापरवाही बरतते हुए सही पैरवी ही नहीं की, चूंकि केंद्र सरकार आरक्षण व्यवस्था को विवादास्पद बनाकर इसे समाप्त ही करना चाहती है. कोई आश्चर्य नहीं होगा कि एक सुर में सब बोलने लगेंगे कि अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति का आरक्षण भारतीय संविधान में आर्थिक एवं पिछड़ेपन के आधार पर नहीं है, यह उनकी संस्कृति, आदिम काल से निवास परंपराओं के कारण दिया गया है ! ऑन ए लाइटर नोट, चले जाइये राजस्थान से सांसद मुरारी लाल मीणा के घर, मल्लिकार्जुन खड़गे जी के घर ; रहन सहन उनका और उनके परिवार का किसी भी ब्राह्मण के घर को मात देता है !

#QuotaWithinQuota

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Prakash Jain

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