जब से देश में मोदी सरकार है, लोकतंत्र खतरे में 'बताया' जा रहा है ! और INC के सबसे बड़े नेता ऐसा खूब बताते हैं, अजीबोगरीब उदाहरण देकर बताते हैं ; बताने के लिए वे अमेरिका जाते हैं, जबकि 76 % अमेरिकन बताते हैं कि उनकी डेमोक्रेसी खतरे में हैं !
ऐसा हम नहीं बताते बल्कि द न्यूयॉर्क टाइम्स बता रहा है जिसकी हर बात हर प्रबुद्ध कांग्रेसी के लिए ब्रह्मवाक्य है क्वोट कर बताने के लिए ! न्यूयॉर्क टाइम्स विथ सिएना कॉलेज का नवीनतम सर्वेक्षण बताता है कि लगभग आधे अमेरिकी मतदाताओं का मानना है कि अमेरिकी लोकतंत्र आम लोगों का प्रतिनिधित्व करने में अच्छा काम नहीं करता है; साथ ही तीन-चौथाई अमेरिकी मतदाताओं का कहना है कि लोकतंत्र खतरे में है !
हालांकि एक कैविएट लगा दिया है कि थ्रेट परसेप्शन बहुत हद तक बायस्ड है. सर्वे के अनुसार अधिकांश मतदाताओं का मानना है कि देश भ्रष्टाचार से ग्रस्त है. यही कैविएट हमारे देश में नदारद हो जाता है, जिसकी वजह से एक हाइप जरूर क्रिएट होता सा लगता है कि क्या वास्तव में डेमोक्रेसी खतरे में हैं ?
दरअसल डेमोक्रेसी वेमोक्रेसी को कोई थ्रेट नहीं है ; चुनाव आता है तो संभावित हार के थ्रेट को टालने के लिए प्रतिपक्षी नेता सत्ता पक्ष को विलेन बताते हुए लोकतंत्र के लिए ही थ्रेट परसेप्शन गढ़ देते हैं. यदि जनता जनार्दन की सहानुभूति इस कदर मिल गई कि चुनाव जीत लिया तो आज जो सत्ता है वो कल प्रतिपक्षी बनेगा और फिर वही थ्रेट परसेप्शन का प्रोसेस चालू हो जाता है सिर्फ विलेन इस बार वो होता है जो कल प्रतिपक्ष में था और आज सत्ता में है !
और इस दुष्चक्र को बताने का, एक्सपोज़ करने का "एक" ने साहस किया था, लेकिन "वह" स्वयं ही इस दुष्चक्र के दलदल में फंसकर ऐसा निखरा कि सबको मात दे बैठा ! हां, बात बता रहे हैं हम केजरीवाल जी की !
आजकल चुनाव अमेरिका का हो या भारत का, प्रचार में मुद्दे पीछे छूट जाते हैं, दारोमदार इस बात को बताने पर रहता है कि कैसे अपने प्रतिद्वंदी की साख पर प्रश्न चिन्ह खड़ा किया जाये ? जबकि जनता का सरोकार तो इस बात से होना चाहिए कि राजनीतिक पार्टियां और प्रत्याशी सत्ता में आने के बाद उनके लिए क्या योजनाएं लाएंगे, बेरोजगारी और महंगाई को दूर करने के लिए क्या करेंगे ? लेकिन चुनाव में ज्यादा हल्ला अपने प्रतिद्वंदियों पर आरोप प्रत्यारोप पर रहता है जिसके शोरगुल में मुद्दे नदारद हो जाते हैं !
चुनावों में रैलियों, सभाओं और सामाजिक कार्यक्रमों के अलावा प्रचार का बड़ा माध्यम सोशल मीडिया व टीवी विज्ञापन भी हैं. सभी प्रत्याशी चुनाव प्रचार में होने वाले खर्चे का एक बड़ा हिस्सा ‘नेगटिव कैम्पेनिंग’ पर व्यय करते रहे हैं. अपनी सभाओं और भाषणों के दौरान प्रत्याशी एक दूसरे की राजनीतिक कुशलता पर तो हमलावर होते ही हैं, लेकिन उसके साथ-साथ एक दूसरे पर निजी टिप्पणी करने से भी पीछे नहीं हटते ! भविष्य की अपनी अपनी परिकल्पना, अपनी अपनी सोच गौण हो जाती है, और अधिकतर समय एक दूसरे की कमियां बताने में निकाल दिया जाता है.
एक ओर जहां मोदी के भाषण देने के अंदाज पर मिमिक्री की जाती है, वहीं दूसरी ओर राहुल की "पप्पू" वाली छवि बनाई जाती है. परस्पर एक दूसरे पर तंज कसने के लिए बदज़ुबानी इस कदर है कि गालियां शर्मा रही हैं. कैम्पेन इस कदर ‘नकारात्मक’ है कि सिर्फ और सिर्फ सामने वाले प्रत्याशी की कार्यशैली या चरित्र पर हमला किया जाता है. ‘सकारात्मक’ वे हो ही नहीं सकते जिसके तहत दोनों स्वयं की उपलब्धियों और विशेषताओं को रेखांकित करे. वास्तविक ‘तुलनात्मक’ होने का मादा तो किसी में है ही नहीं जहां अपने प्रतिद्वंद्वी से तुलना कर स्वयं को वोट देने की अपील करें.
कुल मिलाकर जनता के समक्ष प्रत्याशियों का विजन आ ही नहीं पाता और वोटर अपने मताधिकार का प्रयोग करने से पहले बड़े सीमित दायरे में विश्लेषण करते हैं. अब समय आ गया है जब इलेक्शन कमीशन नकारात्मक राजनीति और फेक न्यूज को रोकने तथा इससे बचाव के लिए न केवल आवश्यक जानकारी मतदाताओं को उपलब्ध करवाए बल्कि जरूरी कदम भी उठाए !
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