महिला सुरक्षा और भागीदारी के लिए सबसे बड़ा सेट बैक राजनीति है !

राजनीति होती है राज नेताओं के गंभीर दृष्टि दोष की वजह से ! कोलकाता के आर जी कर मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल में महिला ट्रेनी डॉक्टर के साथ जो हैवानियत हुईं, वह देश और समाज को शर्मसार कर गया, फिर भी नेताओं को सिर्फ और सिर्फ स्वार्थ परक राजनीति ही सूझी ! देश की पॉलिटिक्स के दो धड़े हैं - केंद्र में सत्ताधारी मोदी की अगुआई वाला एनडीए और विपक्षी इंडी गठबंधन ! परंतु फ़ेडरल स्ट्रक्चर में राज्यों की भूमिका है, जहाँ एक तरफ कई राज्यों में बीजेपी या एनडीए गठबंधन की सरकारें हैं और दूसरी तरफ इंडी गठबंधन की पार्टियों की सरकारें हैं, कहीं टीएमसी है, कहीं डीएमके है, कहीं सीपीएम है, कहीं आप है, तो कहीं गठबंधन की पार्टियों की मिली जुली सरकार है ! इन नेताओं को अपने अपने दुराचारी, दरिंदे नहीं दिखते ; भाजपा नेता खूब मुखर हैं कोलकाता की वहशी घटना पर, जबकि अन्यान्य मसलन कांग्रेस, समाजवादी, एनसीपी, आप, शिवसेना उद्धव गुट, डीएमके के नेता इस कदर कम मुखर हैं कि चुप्पी ही निरूपित करें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी ! देख लीजिये कोलकाता की सड़कों पर बीजेपी मार्च निकाल रही है, धरना प्रदर्शन हो रहे हैं, भाजपा कार्यकर्त्ता गिरफ्तारी दे रहे हैं और उधर महाराष्ट्र में एमवीए (विपक्षी गठबंधन) ने महाराष्ट्र बंद बुलाया है. जहाँ तक पुलिस की बात है तो क्यों ना कहें अपराध नियंत्रण के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए वह एफआईआर दर्ज ही नहीं करती ; कितना आसान जो होता है ? 
अजमेर में 100 से अधिक लड़कियों की अश्लील तस्वीरें खींचकर उनका यौन शोषण करने संबंधी 1992 के कांड में विशेष अदालत का फैसला 32 साल बाद अब आया है, जिसमें मय जुर्माने के छह दोषियों को उम्र कैद की सजा सुनाई गई है ! हालांकि नौ को पहले सजा हुई लेकिन वे भी कैसे डाइल्यूट हुईं, पब्लिक डोमेन में हैं ! जाहिर है, इस फैसले को भी हाई कोर्ट में चुनौती दी जाएगी, तत्पश्चात सुप्रीम कोर्ट का भी विकल्प होगा ही ! यानि अंतिम निर्णय के लिए अंतहीन प्रतीक्षा ? 'न्याय में देरी न्याय न मिलने के समान है' खूब कहने भर को ही कहा जाता है, वर्ना तो हमारी न्याय व्यवस्था क्या खूब पीड़ितों को न्याय और दोषियों को दंड देती है ? देश के अब तक के सबसे बड़े सेक्स स्कैंडल में धार्मिक, राजनीतिक, सामाजिक व आर्थिक सभी तरह से प्रभावशाली लोग शामिल थे. 1990 से 1992 तक शासन- प्रशासन से जुड़े लोग हों या समाज कंटक सब हम प्याला-हम निवाला बन बैठे थे. पद-प्रतिष्ठा के साथ न्याय की कुर्सियों पर बैठने वाले हों या समाज को जागरूक करने और उचित दिशा दिखाने वालों की जवाबदेही और दायित्वों का बोध सुर-सुरा और सुंदरियों के आगे नतमस्तक था. जुआ-सट्टा खिलाने वाले, शराब-ड्रग्स का का धंधा वाले पुलिस संरक्षण में फल-फूल रहे थे.

दरअसल विषमताओं से भरे पूरे इस देश के किसी भी हिस्से में चले जाइये, एक समानता देखने को मिलती है ; यह समानता है अपराधियों को, कभी धर्म की वजह से तो कभी जाति की वजह से तो कभी किसी न किसी स्तर पर पार्टी से जुड़े होने की वजह से, राजनीतिक संरक्षण की ! दुःख तो होता ही है, आत्मग्लानि भी होती है जब यौन अपराधों के मामलों में भी यह देखने में आता है कि अपराध होते ही आरोपियों को बचाने के प्रयास शुरू हो जाते हैं. रसूखदारों के आगे लाचार होकर पुलिस भी सबूत नष्ट करने में जुट जाती है और कानूनी प्रक्रिया इतनी लचर होती है कि न्याय हुआ भी तो इतनी देर हो गई कि अन्याय ही हुआ समझो ! इसके अलावा अपराध नियंत्रण खासकर महिलाओं के प्रति अपराधों के नियंत्रण में अग्रणी दिखने की होड़ राज्य सरकारों और प्रशासन को  जघन्य अपराधों पर लीपा पोती करने के लिए लालायित करती है.  

कोलकाता बलात्कार कांड में जहाँ एक तरफ जघन्य अपराध के बाद भी रिपोर्ट दर्ज कराने तक में संबंधित मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल के प्रशासन तंत्र की सुस्ती उसे संदेह के दायरे में लाती है तो दूसरी तरफ इस्तीफे के बाद उसी प्रिंसिपल की किसी दूसरे कॉलेज में आनन फानन में नियुक्ति राज्य सरकार को भी कठघरे में खड़ा कर देती है.  

हर सरकार अपनी अपनी नाकामी को छुपाने का, दबाने का भरपूर प्रयास करती है और इसी प्रवृत्ति ने महिला सुरक्षा और महिलाओं की भागीदारी पर विपरीत असर डाला है. 1973 में मुंबई के फेमस किंग एडवर्ड मेमोरियल हॉस्पिटल में एक सफाई कर्मी ने महिला नर्स का यौन उत्पीड़न किया, कुत्ते को बांधने वाली जंजीर से उसका गला घोंटा, उसके साथ बलात्कार किया और उसे मरा समझकर फरार हो गया. उस नर्स का पूरा शरीर पैरालिसिस का शिकार हो गया और वह जिन्दा लाश बनकर रह गई. कोलकाता में ट्रेनी डॉक्टर के साथ हैवानियत की घटना गवाह है कि 51 साल बाद भी कुछ नहीं बदला है. कार्यस्थल पर महिला सुरक्षा का मुद्दा एक बार फिर जोर शोर से फोकस में है.  

वर्क फ़ोर्स में महिलाओं की भागीदारी के मामले में भारत काफी पीछे हैं. कटु सच्चाई है कि देश अपनी आधी मानव पूँजी की अपार विकास संभावनाओं को नजरअंदाज कर रहा है. वजहें कई हैं, जिनमें से एक मुख्य वजह नि संदेह यौन हिंसा का खतरा है जो महिलाओं को औपचारिक वर्क फ़ोर्स में शामिल होने से रोकता है.  अधिकांश मेडिकल संस्थानों में महिला नामांकन 50 फीसदी से ज्यादा हो गया है पर प्रैक्टिस करने वाली महिला डॉक्टरों की संख्या अब भी 15 फीसदी ही है. क्यों ? महिलाओं को यौन हिंसा संबंधी खतरों या उनकी चिंताओं से लगातार जूझना जो पड़ता है ! 

नेशनल क्राइम ब्यूरो के अनुसार पिछले चार सालों में लैंगिक अपराध 20% बढे हैं. जबकि वास्तविक आंकड़ें तो कहीं ज्यादा है क्योंकि ज्यादातर अपराध प्रतिशोध, पीड़िता की पहचान उजागर होने का भय और पुलिस जाँच में भरोसा न होने की वजह से उजागर ही नहीं होते. यहाँ तक कि आर जी कर हॉस्पिटल में पहले भी घटनाएं होती रही हैं, कुछ रिपोर्ट भी हुई तो हश्र 'जो हुआ सो हुआ' वाला ही हुआ था. 2001, 2003, 2016, 2020  में भी सेक्स स्कैंडल टाइप घटनायें रिपोर्ट हुई थी लेकिन कहें तो लीपा पोती ही हुई थी.  

आंकड़ों की माने तो देश में प्रतिदिन नब्बे रेप की घटनाएं होती हैं, ईव टीज़िंग और अन्यान्य यौन अपराधों की बात करें तो पता नहीं आंकड़ें कहाँ पहुँचेंगे ? ज़ाहिर है रेप और दुराचार की घटनाओं से कोई प्रदेश अछूता नहीं है, कहीं कम तो कहीं ज्यादा ! सो इस सामाजिक समस्या पर राजनीति से ऊपर उठकर सोच बनाने की है, कम से कम इस मुद्दे पर न तो बेहतर दिखने की प्रतिस्पर्धा अपेक्षित है और न ही अपराधी के साथ, किसी भी कारण से, खड़े दिखने की आवश्यकता है ! 
साथ ही बढ़ती संवेदनहीनता की तह में पहुँचने की महती आवश्यकता है. ये तमाम घटनायें संवेदनहीन होते समाज की ही निशानी है. घटना कोलकाता की हो, या महाराष्ट्र की हो या राजस्थान की हो या मणिपुर में सैकड़ों की भीड़ द्वारा निर्वस्त्र महिलाओं का जुलूस निकालने की घटना और वहशी व्यापार भी यही संकेत देता है. आख़िर हम किस रास्ते की ओर जा रहे हैं ? एक तरफ़ हम सभ्यता का दावा करते हैं, सुसंस्कृत होने का उद्घोष करते हैं, दूसरी तरफ़ दंगों में या फिर हममें से कुछ भिन्न भिन्न घटनाओं को अंजाम देकर शैतान और हैवान बन जाते हैं. चिंतित होना स्वाभाविक है क्योंकि परस्पर घृणा और हिंसा का कारोबार बढ़ गया है. आजकल ईर्ष्या , द्वेष, परनिंदा, झूठी प्रशस्ति और स्वार्थ पर ज़ोर है.  नैतिकता लुप्त है.  चहुँ ओर धन का बोलबाला है, वह कैसे आया है इससे किसी को कोई मतलब नहीं है.  साधन की पवित्रता पर किसी का ध्यान ही नहीं है,सभी का उत्थान किसी की चिंता का विषय है ही नहीं.  

समाज की संरचना बड़ी तेज़ी से बदली है. संयुक्त परिवार टूट रहे हैं. विवाह सरीखी पवित्र संस्था को थ्रेट है.  व्यक्ति  एकाकी, कुंठित और मनोरोग से ग्रस्त हो रहे हैं. संबंधों का सम्मान जैसे भाव और मूल्य गायब हो रहे हैं.  ऐसे विध्वंसकारी मनुष्य संवेदनहीन है और स्व केन्द्रित है. ये व्यापक सोच नहीं रखते और अपराध कर बैठते हैं.                                       

#WomenSafety

Write a comment ...

Prakash Jain

Show your support

As a passionate exclusive scrollstack writer, if you read and find my work with difference, please support me.

Recent Supporters

Write a comment ...