विक्टिम ने न्याय की गुहार क्या की, उसकी मर्जी बता दी अदालत ने !

तुम्हारा रेप हुआ है. ..... इसकी तुम ही जिम्मेदार हो - ऐसा देश की एक उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति ने कह दिया ! मामले में जाएँ तो यकीन मानिए तापसी पन्नू की फिल्म "पिंक" रेप्लिकेट होती प्रतीत होती है. न्यायमूर्तियों द्वारा रेप जैसे मामलों में इस प्रकार के असंवेदनशील फैसले कॉमन हो चले हैं और आश्चर्य की बात है कि हालिया दो मामलों में उच्च न्यायालय भी कॉमन है, इलाहाबाद . हाँ, न्यायमूर्ति भिन्न ज़रूर हैं और उनका भिन्न होना भी एक बड़ी चिंता का विषय है. कहने का मतलब एक नहीं एक से अधिक जज संवेदनहीन हैं !

कहने की बात है कि भारतीय कानून महिला की सुरक्षा को लेकर काफी सख्त हो गया है. यही सुना पीड़िता पीजी की छात्रा ने और अदालत में गुहार लगा दी. और हुआ उल्टा ही कि उसे ही बदचलन बता दिया गया. जो हुआ उसकी वजह से कौन महिला न्याय की मांग करेगी ? तो मान लें कुछ नहीं बदलेगा. छेड़खानी या दुष्कर्म के मामले ना केवल दबाये जाते रहेंगे बल्कि स्वतः ही दबते भी रहेंगे. शायद प्रशासन भी यही चाहता है, क्राइम फ्री सोसाइटी का तगमा जो मिल जाना है !      
बलात्कार का ये मामला पिछले साल सितंबर का है. इसमें एक पोस्ट ग्रेजुएट छात्रा ने एक युवक पर अपने साथ नशे की हालत में दुष्कर्म का आरोप लगाया था. महिला का कहना था कि वो नशे में थी और आरोपी ने इसका फायदा उठाते हुए उसकी इज्जत लूटी. वहीं आरोपी ने जमानत याचिका में कहा था कि लड़की खुद अपनी मर्जी से उसके साथ गई थी और दोनों में संबंध आपसी सहमति से बने थे. ऐसे में इसे दुष्कर्म नहीं कहा जा सकता. चूंकि लड़की पब में गई, शराब पी, लड़के के साथ देर रात तक डांस किया, उसके साथ भी गई, तो माननीय जज ने निष्कर्ष निकाल लिया कि संबंध मर्जी से बने. कहने का मतलब जो लड़कियां पार्टी में जाती है और ड्रिंक करती हैं, वह अवेलेबल होने का साइनबोर्ड बनके जाती है ! लड़के के साथ ड्रिंक करेगी, डिनर करेगी तो उसकी मर्जी हुई ना ! ऐसा न्यायमूर्ति ने भी मान लिया.  "पिंक" फिल्म तो 2016 में ही आ गई थी ! जनाब ने देखी नहीं क्या ? आज 2024-25 में भी ऐसी दकियानूसी और पितृसत्तात्मक सोच रखते हैं कि शराब को गलत करैक्टर की निशानी मान ले रहे हैं सिर्फ लड़कियों के लिए ; लड़कों के लिए सिर्फ इंजूरियस टू हेल्थ भर है. क्या जेंडर इक्वलिटी है ? लड़की या महिला के "नो" की महत्ता कैसे दरकिनार कर गए मी लार्ड कि "नहीं" का मतलब "हाँ" या "शायद" न होकर केवल "नहीं" होता है चाहे वो जान पहचान की हो, अनजान औरत हो, सेक्स वर्कर हो या फॉर दैट मैटर आपकी पत्नी ही हो !
कुल मिलाकर जमानत देने के लिए न्यायमूर्ति का लॉजिक ही वाहियात है और ये तो और भी ज्यादा आपत्तिजनक है जब मी लार्ड मेडिकल जांच का हवाला देकर डॉक्टर द्वारा यौन हिंसा की बात नहीं किये जाने का भी जिक्र करते हैं, साथ ही मान लेते हैं कि चूंकि पीड़िता पोस्ट ग्रेजुएट छात्रा है, इसलिए वह ‘अपने कृत्य की नैतिकता और महत्व को समझने में सक्षम थीं. इसी तारतम्य में पिछले महीने ही इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति ने ना केवल आईपीसी के प्रावधानों की बल्कि पॉक्सो सरीखे सख्त क़ानून की भी धज्जियां उड़ा दी थी. हालांकि उच्चतम न्यायालय ने स्वतः संज्ञान ले लिया था, परंतु सिर्फ संभाल भर लिया था ! सवाल है ऐसी मानसिकता वाले जजों पर कार्यवाही क्यों नहीं होती ? उन्हें पदमुक्त क्यों नहीं किया जाता ? हैं तर्कों के धनी तो वकालत करें ना ! लड़े बलात्कारियों के मामले और उन्हें बरी करा लें, किसने रोका है ? न्याय मंदिर में न्याय की कुर्सी पर बैठकर वे अपनी पितृसत्तात्मक सोच का पोषण नहीं कर सकते !  

 अभी तक तो शीर्ष अदालत ने इस हालिया फैसले पर संज्ञान नहीं लिया है, हालांकि अपेक्षित है ! 

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Prakash Jain

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