हंसने हंसाने का अधिकार है, लेकिन “terms & conditions apply" तो होनी ही चाहिए ना !
14 Apr, 2025
हँसने हँसाने के लिए अपशब्द क्यों उवाचना ? अपशब्द या गाली क्या है तो समझने की जरूरत है कि अपशब्द बोलना या गाली देना एक व्यक्तिपरक मामला है और इसका अर्थ और प्रभाव संदर्भ और व्यक्ति पर निर्भर करता है. जबकि समूह में वस्तुनिष्ठ होना अपेक्षित है.
बात करें व्यंग्य क्या है ? श्रेष्ठ व्यंग्य वह होता है जब आप किसी के बारे में बात कर रहे हैं तो सीधे-सीधे उसका नाम लेकर उस पर आरोप न लगाएं, बल्कि इस तरह से अपनी बात कहें कि वह समझ जाए कि मुझ पर व्यंग्य किया जा रहा है. भले ही वह बुरी तरह तिलमिला जाए, लेकिन कुछ कर न पाए क्योंकि आप ने उसका नाम लिया ही नहीं है. मकसद होता है किसी व्यक्ति अथवा समाज को सुधारने का. परंतु जब हमारा व्यंग्य करने का मकसद किसी को सुधारना नहीं बल्कि सबके बीच में उसका उपहास उड़ाना होता है, उसकी खिल्ली उड़ाना होता है, तब व्यंग्य सीमा पार कर जाता है, क्योंकि इस तरह का व्यंग्य व्यक्तिगत हो जाता है, जिससे बचना ही श्रेयस्कर है. हाँ, अतिरंजना कर दी या संबंधित व्यक्ति या उसके अनुयायी कुपित हुए तो एक सिंपल सी माफ़ी लाजिमी है, कहना भर ही तो है कि "किसी को ठेस पहुंची हो तो क्षमा चाहता हूँ क्योंकि मेरा अभिप्राय ठेस पहुंचाने का नहीं था !" ऐंठ क्यों दिखानी ? वीर बनो और आगे बढ़ो ना ! "क्षमा वीरस्य भूषणम" !
आजकल सब कुछ ऑनलाइन है तो कॉमेडी भी ऑनलाइन है. स्टैंड अप कॉमेडी शोज के लिए क्लब है, बार है , नाईट क्लब हैं और कभी कभी कॉलेज की नुक्कड़ या फिर थिएटर भी है. और यही शो ऑनलाइन स्ट्रीम किये जाते हैं, जिनके लिए यूट्यूब है, इंस्टा है, मस्क का X है, अन्य सोशल मीडिया प्लेटफार्म भी है. आजकल तो वेब सीरीज टाइप कॉमेडी कंटेंट्स भी बनने लगे हैं. पहले के जमाने में व्यंग्यकार होते थे जिनकी व्यंग्य रचनाओं की यह विशेषता होती थी कि लेखक हास्य के व्याज से बड़ी गूढ़ बात को समझा देता था. व्यंग्य शैली में लिखी या बोली गई बातें हल्के हास-परिहास-उपहास से भरी होते हुए भी सीधा दिल पर असर करने में समर्थ होती थी. किसी पर व्यक्तिगत आक्षेप नहीं होता था. होता भी था तो शालीनता नहीं लांघता था. और फिर भी यदि किसी को नागवार गुजरा तो व्यंग्यकार बिना शर्त क्षमा मांगने में किंचित भी देर नहीं लगाता था. हाँ, तब लक्षित प्रसिद्ध व्यक्ति ब्रॉड माइंडेड भी होते थे. संविधान तब भी था ; हाँ, यूँ लहराया नहीं जाता था !
हिंदी में हरिशंकर परसाई जी जैसे श्रेष्ठ व्यंग्यकार हुए हैं. भरपूर तीखे लेकिन सौ फीसदी शालीनता के दायरे में ! बगैर नाम लिए साथ ही नाम का आभास ना कराते हुए क्या क्या नहीं कह दिया था उन्होंने राज नेताओं को ! जब कभी किसी का नाम लिया भी तो विशेष सावधानी बरती कि कुछ भी "कहा" अपशब्द या आपत्तिजनक निरूपित न हो सके. उनकी लेखनी की धार की बानगियां प्रदर्शित करती अनेकों रचनाएं हैं मसलन "तेरे वादे पे जिए हम" , "विधायकों की बिक्री" , "समाजवाद और धर्म" , " महात्मा गांधी से कौन डरता है" , "अमेरिका के कुछ राष्ट्रपति" आदि आदि.
परंतु इन स्टैंड अप कॉमेडियनों की पहचान ही विवादों से हैं, जितना लंबा विवाद खिंचा, कॉमेडियन का भाव बढ़ता चला गया ! दरअसल वह कंटेंट के शब्दों को या कहें पंच लाइनों को इस प्रकार क्रिएट कर एक्सप्रेस करता है कि विवाद जन्मे और फिर फले फूले भी. सॉरी कह दिया तो मिट्टी न डल जायेगी आग में जो बमुश्किल सुलगाई थी !
विवादों की कड़ी में हालिया विवाद है कुणाल कामरा का, जिन्होंने अपने एक शो में पैरोडी के मार्फ़त महाराष्ट्र के डिप्टी मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे को गद्दार कहा. नाम तो नहीं लिया लेकिन नाम लेने में कोई कसर भी बाकी नहीं रखी. कामरा का तर्क है कि उसने वही कहा है जो कभी अजित पवार ने, जब वे महाविकास में थे, भी कहा था. परंतु यह उसका कुतर्क है. अजित दादा ने जो कहा "महाराष्ट्र में महा विकास के कामों को रोकने की कोशिश कर रहे गद्दारों को सबक सिखाने का समय आ गया है", वह जातिवाचक था. कामरा ने तो एकनाथ शिंदे को लक्ष्य कर एक नहीं अनेकों व्यक्तिवाचक शब्दों की बिना पर कहा, मसलन ठाणे का, चेहरे पे दाढ़ी, आँखों पे चश्मा, गुवाहाटी में जा छिपा आदि आदि ! साथ ही गलतबयानी भी की जब दलबदलू कहा, चूंकि विधिवत उन्हें ही शिवसेना का नाम और चिन्ह मिला है. फिर किस भाव भंगिमा से वह बोल रहा था, स्पष्ट था इशारा शिंदे ही थे.
याद नहीं आता कुणाल ने शो किया हो और विवाद न हुआ हो ! और तो और शीर्ष न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश तक को मिडल फिंगर दिखाकर उनका मजाक उड़ाया था, जिसके लिए अवमानना का मामला अभी भी लंबित है. मॉर्फ़ेड वीडियो के ज़रिए पीएम का मजाक उड़ाने के लिए बच्चे तक का मजाक बना दिया था ; जब लोगों की नाराजगी उबाल पड़ी, वीडियो डिलीट कर कह दिया कि बच्चे का मजाक बनाने का उनका अभिप्राय नहीं था. कभी पत्रकार से उलझ पड़े तो कभी किसी बड़े बिजनेसमैन को निशाना बनाया. एक और बार, सुप्रीम कोर्ट को ब्राह्मण बनिया मामला बता दिया था, इसके लिए भी अवमानना लंबित है.
कामरा हो या उनकी बिरादरी के अन्य, बात सिर्फ़ भाषण एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की करते हैं और बात बनाना उन्हें खूब आता है, सो एस्केप रूट मिल ही जाता है. कामरा ने ही तर्क दिया ना कि “भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हमारे अधिकार का उपयोग केवल शक्तिशाली और अमीर लोगों की चापलूसी करने के लिए नहीं किया जाना चाहिए, भले ही आज का मीडिया हमें अन्यथा विश्वास दिलाए. एक शक्तिशाली सार्वजनिक व्यक्ति की कीमत पर मजाक को बर्दाश्त न कर पाने की आपकी अक्षमतामेरे अधिकार की प्रकृति को नहीं बदलती. जहां तक मुझे पता है, हमारे नेताओं और हमारी राजनीतिक व्यवस्था के सर्कस का मजाक उड़ाना कानून के विरुद्ध नहीं है. हालांकि, मैं अपने खिलाफ की गई किसी भी कानूनी कार्रवाई के लिए पुलिस और अदालतों के साथ सहयोग करने को तैयार हूँ”. बातें और भी बड़ी बड़ी कर ही रहा है कि “एक मनोरंजन स्थल केवल एक मंच है। हेबिटेट (या कोई अन्य स्थल) मेरे हास्य के लिए जिम्मेदार नहीं है, न ही उसे मेरे कहे या किए पर कोई नियंत्रण है. किसी राजनीतिक पार्टी का एक कॉमेडियन के शब्दों के लिए एक स्थल पर हमला करना उतना ही बेतुका है जितना कि टमाटर ले जा रहे ट्रक को पलट देना, क्योंकि आपको परोसा गया बटर चिकन पसंद नहीं आया.शायद मेरे अगले शो के लिए मैं एलफिंस्टन ब्रिज या मुंबई में किसी अन्य ढांचे को चुनूंगा, जिसे जल्दी से तोड़ने की जरूरत है."
एकबारगी मान भी लें कामरा शत प्रतिशत ठीक बोल रहा है, फिर भी जिसके लिए उसने कहा, उसे नागवार गुजरा, अपमानजनक लगा तो सॉरी बोल देने से एतराज क्यों ? फॉर दैट मैटर, यदि किसी के शालीन बोलों से भी न्यायालय/न्यायमूर्ति की अवमानना होती प्रतीत होती है, न्यायालय उससे माफ़ी मंगवा ही लेता है, तो किसी व्यक्ति विशेष की अवमानना, वो भी जब वह स्वयं आपत्ति करे, का अधिकार कैसे आरोपित व्यक्ति को भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बिना पर दिया जा सकता है ? जब उसने न्यायालय के ख़िलाफ़ कहा, तब तो तकिया कलाम बन चुकी इस बिना का लाभ उसे नहीं मिला ना !
हर अधिकार के साथ कर्तव्य जुड़ा हुआ है, बात सिर्फ अधिकार की नहीं की जा सकती, जैसा महामहिम मुरलीधर ने कहा कि यदि आप अपने अधिकारों का प्रयोग नहीं करते हैं तो आप भूल जाएँगे कि आपके पास अधिकार है. आपने कहा आज जिस चीज पर गंभीर रूप से खतरा रहा है वह है हंसने का अधिकार ! एकमात्र जीवित प्राणी जो व्यंग्य, बुद्धि और हास्य के माध्यम से ख़ुशी और आनंद का अनुभव कर सकता है, वह है मनुष्य ! सो आपने बात की हँसने की गारंटी की ! सही कहा आपने इस मायने में कि इंसान के पास हँसने की क्षमता है, लेकिन यदि उसे हँसी आए फूहड़पन पर, तंज के लिए अमर्यादित शब्द से युक्त पंच पर तो वह स्वस्थ हँसी तो नहीं कहलायेगी ना ! फिर चोर को भी उसके मुख पर चोर नहीं कह सकते, कहते हो तो उसे गाली दे रहे हो ! बिना नाम लिए कहा कैसे बचाव हो सकता है, जब संदर्भ और बातें उसी को इंगित कर रही हों !
इस बार के उनके कृत्य पर भी कामरा पर भारतीय दंड संहिता कि धारा ३५३(१) (बी) , ३५३(२)( सार्वजनिक शरारत) और ३५६(२) (मानहानि) के तहत मामला दर्ज हुआ है ! हालांकि जो हुआ सो हुआ की तर्ज़ पर इस बार भी वे बच निकलेंगे, यदि कुछ होगा तो ज़्यादा से ज़्यादा कोर्ट के आदेश पर वह माफ़ी माँग लेगा और कहेगा कि कोर्ट के सम्मान के लिए माफ़ी माँगी है वरना तो माफ़ी कभी न मांगे मेरी जूती ! उसपर तो कहावत चरितार्थ होती है कि “बदनाम अगर होंगे तो क्या नाम नहीं होगा ?”
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