क्या सबसे बड़ा अपराध है हिंदुस्तान में हिंदू होना ?

निहत्थे थे, निरपराध थे और सबसे बड़ा गुनाह उनका हिन्दू होना था !  बोल तेरा धर्म क्या है ? हिंदू है. ......गोली खा ! नेता लोग कहते रहते हैं कि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता ; परंतु जब आतंकवादियों ने ( जिनका मुस्लिम होना संदेह से परे है) किसी धर्म विशेष का होने के कारण ( जो हिंदू थे) उन्हें मार दिया, तो सिद्ध हो गया ना कि आतंकवाद का धर्म होता है ! कभी भगवा आतंक बताने से, हिंदू आतंकवाद बताने से कतिपय नेताओं को गुरेज नहीं हुआ तो अब तो एक सुर में कह दो ना इस्लामिक आतंकवाद ! लेकिन सुर हमारा बनेगा, संदेह है ! वोट बैंक की स्वार्थ परक राजनीति जो है ! 

हालांकि पहली बार ऐसा नहीं हुआ है. पहले भी हुआ है, पाक का नापाक मकसद यही रहता है कि जैसे गृहयुद्ध में वह फंसा है, वैसे ही गृहयुद्ध में भारत भी उलझ जाए और यहां के हिंदू अपने यहां के अल्पसंख्यकों से बदला लेने पर उतर आएं ! वह यह भी खूब समझता है कि आग उसे लगानी है, घी तो यहाँ की राजनीतिक पार्टियां वोट बैंक की स्वार्थ परक राजनीति के लिए डाल ही देगी ! परंतु पाक ने भूल कर दी है, भारत की अवाम खूब परिपक्व हो चुकी है !

धर्म से ऊपर उठकर पहलगाम की अवाम ने इन अधर्मी नेताओं को खूब आईना दिखाया है इस नरसंहार के पीड़ितों के लिए न्याय की मांग करते हुए विरोध प्रदर्शन कर; विरोध किसी धार्मिक या राजनीतिक संगठन की ओर से नहीं था, बल्कि स्थानीय लोगों का अपने लिए था. विरोध मार्च के दौरान कई नारे लगाए गए ... भारतीय सेना ज़िंदाबाद .... हम हिंदुस्तानी हैं, हिंदुस्तान हमारा है .......और सबसे ज़्यादा चर्चित नारा था अनुराग ठाकुर फेम “हिंदुस्तान के गद्दारों को, गोली मारो सालों को !” कहाँ तब इस नारे ने वोटरों को ध्रुवीकृत करने का काम किया था, इस बार पहलगाम के निवासियों ने इसी नारे का इस्तेमाल विपरीत संदेश देने के लिए किया — आतंकवादियों के खिलाफ खड़े होना, पीड़ितों के परिवारों के साथ एकजुटता दिखाना, जिनमें से एक को छोड़कर सभी हिंदू थे. वह एक तो हर काल में हुआ है, सैयद हुसैन शाह ही तो कल अब्दुल हमीद था, मौलाना आजाद था, अब्दुल कलाम था ! 

प्रदर्शनकारियों के हाथों में तख्तियां थीं, जिन पर लिखा था: “Stop innocent killings, I am Indian” ......“as Pahalgamis, we condemn this यही मैसेज क्यों न बने कि ना हम हिंदू ना मुसलमान, हम तो बनारसी या बृजवासी या कलकतिया या पटनिया या बम्बइया ! कहने का मतलब पहचान के लिए न धर्म न जात हो बल्कि स्थान हो ना !  

जो टूरिस्ट, गाइड, दुकानदार मुस्लिम थे, वे मुस्लिम होने की वजह से बख्श दिए गए; एक एजाज था किसी हिन्दू के साथ और वह बख्शा गया चूँकि कलमा पढ़ दिया. इसी प्रकार एक लोकल अहमद था, हालांकि छोड़े जाने पर उसने 7-8 टूरिस्टों की मदद कर बचाया और मानवता का परिचय दिया. 
निःसंदेह आतंकवादी पाकी थे, लक्ष्य उनका सिर्फ और सिर्फ हिंदू मेल टूरिस्ट थे. धर्म पूछकर निरपराध पर्यटकों को गोली मारने वाले मज़हबी दरिंदों को कैसे नजरअंदाज कर देते हैं हमारे कतिपय नेता ? वे भारी भूल कर रहे हैं क्योंकि इस बार अवाम एक सुर है, न हिंदू है न मुसलमान है बल्कि सारे हिन्दुस्तानी पहले हैं , जिन्होंने मिलकर ठानी है कि वो सज़ा दी जाए जिसे इन आतंकियों के देसी और परदेसी ख़ैरख्वाह और आका याद रखें.
परंतु एक पुरानी कहावत है "कुत्ते की पूंछ सीधी नहीं होती" यानी किसी व्यक्ति के स्वभाव में या किसी चीज में बदलाव लाना बहुत मुश्किल होता है, चाहे कितनी भी कोशिश कर ली जाए. और यही हाल है आजकल तमाम विपक्षी नेताओं का, अपवाद स्वरूप दो चार को छोड़कर. कांग्रेस, सपा और अन्य पार्टियों की मंशा तो यही है कि जो हुआ सो हुआ, क्यों बताया जाए कि आतंकियों ने चुन चुन कर हिंदू टूरिस्टों को मारा ? क्या खूब आदर्श है उनका कि सैलानी सैलानी होता है, न हिंदू न मुसलमान ! एक प्रवक्ता तो सवाल ही दाग बैठे कि " भाजपा के नीच लोगों, धर्म पूछकर मारा होता तो सैयद हुसैन ना मारा गया होता !" थोड़ा सब्र रखा होता तो पता चल जाता कि सिर्फ एक ही मुसलमान क्यों मारा गया ?  पीएम से लेकर होम मिनिस्टर तक को कोसने के लिए संयोग - प्रयोग, पागलपन, पाशविक प्रवृति, वीभत्स नरसंहार, नीचता जैसी भारी भरकम गालियों तक से परहेज नहीं किया. कांग्रेस  पार्टी के दामाद जी ने तो कह दिया कि देश में हिंदू मुसलमान हो रहा है तो आतंकवादियों ने धर्म पूछकर मारा !  एक मुस्लिम समाजवादी नेता को तो लगा आतंकवादी कोई बहुरूपिये थे, पाकिस्तानी नहीं थे और विडंबना देखिये पार्टी सुप्रीमो या अन्य किसी समाजवादी नेता की इस सिरफिरे नेता को गलत ठहराने की हिम्मत नहीं है, उल्टे एक भाट तो उसे जस्टिफाई करते फिर रहे हैं. उद्धव गुट को तो मौका मिल गया कि उनके बोल बचन प्रवक्ता ने पीएम, होम मिनिस्टर का इस्तीफ़ा मांगना शुरू कर दिया है. सपा सुप्रीमो तो हर हमेशा ज्ञान ही बांटते हैं कि भाजपा सरकार ने पिछले हमलों से सबक लिया होता तो ऐसे हमलों को रोका जा सकता था. एक महिला नेत्री है फिर भी उनकी शब्दावली शर्मसार ही करती है, "लाशों के ठंडे होने का इंतज़ार करो गिद्धों. किसी की पूरी ज़िंदगी बर्बाद हो गई और तुम्हें कार्टून सूझ रहे हैं. क्या तुम इस आपदा में भी अवसर तलाश रहे हो.” जबकि बड़े नेता मसलन राहुल और खड़गे जी होम मिनिस्टर से बात कर पूरी मदद का आश्वासन देते हैं.  
सकारात्मक बातें सिर्फ और सिर्फ फारूख अब्दुल्ला जी ने की ! उन्होंने माना कि बेहतरी की ओर बढ़ रहे आज के वाइब्रेंट कश्मीर को अस्थिर करने की कोशिश हुई है. उन्होंने ना तो कोई विक्टिम कार्ड खेला ना ही कोई ब्लेम गेम ! और तो और, अपने कहे में उन्होंने पूर्व रॉ चीफ दुलत के खुलासे पर एक प्रकार से मोहर लगा दी कि 370 को हटाने के लिए उनकी निजी सहमति थी. नकारना उनकी राजनीतिक मजबूरी थी, परंतु जब राष्ट्र पर बात आती है तो राजनीति गौण हो जाती है, उन्होंने इस बात को सिद्ध किया. पता नहीं औरों को क्यों राजनीति ही करनी है, जबकि शुरुआत करते हैं कि आज राजनीति नहीं करेंगे ? 

यह हमला ऐसे समय हुआ है जब अमेरिकी उपराष्ट्रपति जेडी वेंस भारत के आधिकारिक दौरे पर हैं. गौर करने वाली बात है कि यह हमला पाकिस्तानी सेना प्रमुख जनरल असीम मुनीर के संबोधन के कुछ ही दिनों बाद हुआ है. विदेश में बसे पाकिस्तानों को संबोधित करते हुए जनरल मुनीर ने इस बात पर जोर दिया था कि कश्मीर पाकिस्तान का ‘शिरा-ए-जिगर’ है.   

हंसी ही आएगी ना जब इस घड़ी में भी कुछेक पत्रकार पाक को सबक सिखाने के लिए जंग की अहमियत को नकारते हैं यह बताते हुए कि जंग समाधान नहीं है. .... अमेरिका वियतनाम में घुस गया, क्या हुआ ?........... रूस अफगानिस्तान में घुसा, क्या उखाड़ लिया ?............क्या उन्हें विस्तारवाद और एकता, अस्मिता तथा अखंडता की रक्षा में फ़र्क़ करना नहीं आता ? 
ज़ुबानी जमा खर्च से सिर्फ़ खोखली एकजुटता प्रदर्शित कर क्यों राजनीतिक जमात अपना मखौल उड़ा रही है ? कांग्रेसी मित्रों और अन्यायों को अनर्गल प्रलाप से परहेज रखना होगा.  मसलन लिस्ट में एक मुस्लिम का नाम ढूँढ कर आतंकी घटना को जस्टिफाई करना और ऐसी ही बे सिर पैर की बातें क्या इसलिए कि मोदी पीएम है और होम मिनिस्टर शाह है ? इस समय तो राष्ट्र है, राष्ट्र के पीएम है, राष्ट्र के होम मिनिस्टर हैं ! समस्त देशवासियों के लिए यही मायने है और तमाम लोगों को, चाहे विपक्ष हो या पत्रकार या बुद्धिजीवी, यही मायना लेना चाहिए !  

एक और बात, कहीं ना कहीं चूक तो होती ही है, संबंधित एजेंसियां स्वीकारती भी है. तदनुसार आवश्यक एक्शन भी होता है. इसका मतलब यह नहीं होता कि सुरक्षा एजेंसियां नाकारा हैं. क्या अमेरिकन सुरक्षा एजेंसियां नाकारा थी जब 26/11 हुआ था ? सर्वदलीय बैठक में चूक मानी गई तो क्या इसके लिए मीडिया में दम भरना जरुरी था कि सरकार ने चूक मान ली है ?            

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Prakash Jain

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