
खासकर तब तो अवश्य ही जब सेंसर बोर्ड ने पास कर दिया है ! आमिर खान के बेटे जुनैद खान की डेब्यू फिल्म "महाराज" की स्ट्रीमिंग ओवर द टॉप NETFLIX पर आज से ही होनी थी, फिलहाल नहीं होगी गुजरात उच्च न्यायालय की कृपा दृष्टि जो पड़ गई है ! रोक अंतरिम है और इसलिए है कि अपील कर्ताओं को, जो स्वयं को भगवान कृष्ण के भक्त और पुष्टिमार्ग संप्रदाय के अनुयायी बताते हैं, लगता है कि फिल्म सार्वजनिक व्यवस्था को बाधित कर सकती है और उनके संप्रदाय और हिंदू धर्म के खिलाफ हिंसा भड़का सकती है क्योंकि फिल्म कथित तौर पर 1862 के महाराज मानहानि मामले पर आधारित है, जिसके अंग्रेज जजों के फैसले में हिंदू धर्म, भगवान कृष्ण और भक्ति गीतों और भजनों के बारे में ईशनिंदा सरीखी टिप्पणियां शामिल हैं. कहने का मतलब किसी ने कुछ "कथित" बता दिया और न्यायमूर्ति ने मान लिया !
निःसंदेह मेकर्स ने आधार बनाया है सौरभ शाह की गुजराती पुस्तक "महाराज" को, रियल ऐतिहासिक पलों को जिसमें तब समाज के ही एक क्रांतिकारी बंदे ने व्याप्त सामाजिक कुरीतियों में से एक के खिलाफ आवाज उठाई थी. चूंकि तमाम बातें मसलन पुस्तकें, संबंधित महाराज मानहानि मामला पब्लिक डोमेन में भी हैं. क्या वे प्रतिबंधित की जा सकीं ? यदि नहीं, तो फिल्म ही क्यों ?
फिर जो हुआ था वही तो दिखाया जाना है, जबकि यदि फ़िक्शन भी होता तो किसी भी तरह का प्रतिबंध नहीं बनता था ! 'कथित' संवैधानिक जनतंत्र में 'कथित' आज़ादी तो रहनी चाहिए ना ! जिन्हें एतराज है या जिन्हें 'कथित' एतराज करने का अंदेशा भी है तो फिल्म /कंटेंट न देखे ना ! आखिर 'न देखने' की आज़ादी भी तो सभी एन्जॉय कर ही रहे हैं ! सो एतराज शीर्ष न्यायालय द्वारा अन्नू कपूर की "हमारे बारह" पर पाबंदी लगाने से भी है ! रह रह कर आस्था का ख्याल क्यों आ जाता है महानुभावों को ? संजोग देखिये दोनों ही फ़िल्में आज से ही दिखाई जानी थी ! एकबारगी मान भी लें रियल या फ़िक्शन , जो भी 'वे' दिखा रहे हैं, नहीं दिखाया जाना चाहिए, तो भी वे अपनी क्रिएटिविटी शेयर कर सकते हैं माध्यम जो भी हो ! जिस गुजरात ने फिल्म पर अंतरिम रोक लगाई, उसी गुजरात के सौरभ शाह ने "महाराज" लिखी ना; जिसे गुजरातियों ने पढ़ा भी ! यदि अन्य भाषाओं में अनूदित हो जाती, तो अन्यान्य भी पढ़ लेते ! हाँ, कैविएट तो है ही , या कहें निहित है कि जिन्हें एतराज है, वे ना पढ़ें ! और यदि क्रिटिकली पढ़ भी ली तो स्वयं के लिए पढ़ी ना ! इसी प्रकार फिल्म बनी या बनाई गई तो जिन्हें एतराज है वे नहीं देखेंगे और देखेंगे भी तो गुण-दोष के लिए ही देखेंगे ! ऐसा क्यों मान लिया जाता है कि ख़ास समुदाय या धर्म उद्वेलित होगा ? मान भी लें उद्वेलित होकर हिंसा पर उतरेगा तो कानून व्यवस्था की समस्या के अंदेशे के मद्देनज़र संविधान द्वारा प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन तो नहीं किया जा सकता ना ! वैसे पता नहीं क्यों किसी की ZEE 5 पर बहुत पहले से स्ट्रीम हो रही "ताज - डिवाइडेड बाय ब्लड" पर नजर क्यों नहीं पड़ी ?
कुल मिलाकर निष्कर्ष यही है कि रोक, भले ही अंतरिम हो, नहीं होनी चाहिए. बकवास सा ही लॉजिक है कि जब जिस स्थिति में रोक नहीं लगाई थी, स्थिति भिन्न थी. कहने का मतलब सेलेक्टिव होने के विशेषाधिकार को प्रोत्साहन क्यों ?
अब जब न्यायालय की वजह से MAHARAJ LIBEL CASE of 1862 चर्चित हो ही रहा है तो जिज्ञासा की संतुष्टि कर ही ली जाए ! इसके पहले थोड़ी और बातें रोक को लेकर बनती है. फनी सा तर्क गुजरात उच्च न्यायालय की एकल पीठ के माननीय न्यायमूर्ति ने क्यों मान लिया कि कहानी को छिपाने के कुत्सित मकसद से फिल्म की रिलीज बिना किसी प्रचार प्रसार के गुप्त रूप से की जा रही है. एक और बात, अपीलकर्ता खुद ही कह रहे थे कि फिल्म की रिलीज को रोकने के लिए सूचना और प्रसारण मंत्रालय से तत्काल अपील करने के बावजूद उन्हें कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली. सिर्फ और सिर्फ इसी जानकारी को आधार बनाकर न्यायालय अपील खारिज कर सकता था या फिर बिना किसी अंतरिम रोक के सुनवाई के लिए मामले रख सकता था. तर्क नहीं कुतर्क ही कहेंगे या हास्यास्पद कहेंगे कि फिल्म की रिलीज़ से, चूंकि नेटफ्लिक्स की ग्लोबल पहुंच है, नुकसान बड़ा होगा जिसे ठीक नहीं किया जा सकेगा ! ट्रायल हुआ था चूंकि मामला था, इसलिए पुस्तकें लिखी गई, पढ़ी भी गई ; नुकसान तब नहीं हुआ था क्या ? सोचने की बात है "हिंदुओं नो असली धर्म आने अत्यार ना पाखंडी माटो" शीर्षक वाले लेख से हिंदू धर्म की हानि कैसे हो गई यदि लेख पाखंडियों का, धर्म के ठेकेदारों के कुत्सित विचारों का पर्दाफाश कर रहा था ?
फिल्म किसी ने देखी नहीं और फिल्म को, NETFLIX को हिंदू विरोधी चस्पा कर दिया गया जबकि फिल्म बनाई एक हिंदू ने एक हिंदू लेखक की किताब को आधार बनाकर, रूढ़िवादी पुष्टिमार्ग समाज के ही एक सुधारक पत्रकार और एक ताकतवर व्यक्ति के बीच की सच्ची कानूनी लड़ाई पर ! विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल जैसे ठेकेदार चाहते हैं कि फिल्म पहले उन्हें दिखाई जाए, वे निर्णय करेंगे कि रिलीज़ की जायेगी कि नहीं ! भई ! आप निर्णय अपनी पब्लिक के लिए करो ना कि फिल्म देखनी है या नहीं ! अभी दो दिन पहले ही मोहन भागवत बड़ी बड़ी बातें कर रहे थे; क्या वे इन संगठनों को चेताएंगे की बाज आएं हरकतों से ? फ़िलहाल वास्तविक आधार के नाम पर सिर्फ़ फ़िल्म का पोस्टर है जो इसलिए नागवार गुजर रहा है कि एक तरफ एक तिलक-धारी, शिखा धारी आदमी दिखाया गया है, जबकि दूसरी तरफ एक तेज-तर्रार युवा है ! गजबे है !
1862 के मानहानि के केस में जो हुआ उसे धर्म, आस्था के चलते दबा के रखा गया था. जदुनाथ महाराज ने एक लड़के के खिलाफ केस किया था. आरोप था कि उस लड़के ने महाराज और उनके भक्तों की छवि खराब करने की कोशिश की थी. धर्म को बदनाम करने की कोशिश की थी . उस तारीख पर बॉम्बे कोर्ट के बाहर बड़ी तादाद में लोग जमा हुए थे. कुछ महाराज के भक्त थे. कुछ बस देखने आए थे कि आज क्या होने वाला है. और कुछ बस उस लड़के की हिम्मत के साक्षी बनना चाहते थे. करसनदास मुलजी नाम का वो लड़का पेशे से पत्रकार था, 'सत्यप्रकाश' के नाम से मैगज़ीन भी निकालता था. विचारों से स्वतंत्र था, रूढ़िवादी प्रथाओं का मुखर विरोधी था. विधवा विवाह का हिमायती था. वैष्णव संप्रदाय से था और अपने क्रांतिकारी विचारों की कीमत उसे घर छोड़कर चुकानी पड़ी थी. लेकिन आग वो लगता रहा, बेफिक्र था किसके खिलाफ वो लिख रहा था. करने लगा वैष्णव पुजारियों के दोगलेपन को एक्सपोज़ कि कैसे वे सब अपनी महिला भक्तों के साथ अमानवीय बर्ताव कर रहे थे. फिर आया पुजारियों द्वारा महिला भक्तों का यौन उत्पीड़न किये जाने के बारे में उसका क्रांतिकारी विस्तृत आर्टिकल ! यदुनाथ महाराज ने इसके जवाब में करसनदास मुलजी के खिलाफ 50,000 रुपये का मानहानि का केस कर दिया. महाराज की तरफ से 31 गवाह बॉम्बे हाई कोर्ट में पेश हुए. वहीं करसनदास मुलजी ने 33 गवाहों को पेश किया. 22 अप्रैल 1862 को इस केस का जजमेंट आया. जज आर्नोल्ड ने मानहानि के दावे को खारिज कर दिया. जज ने कहा कि यहां धार्मिक विचारधारा की बात नहीं, बल्कि नैतिकता का सवाल है. डिफेंडेंट और उनके गवाहों का पक्ष साफ है – जो नैतिक रूप से गलत है, उसे धर्म के हिसाब से सही नहीं माना जा सकता. उन्होंने करसनदास की हिम्मत की मिसाल दी, कि कैसे उन्होंने इतने शक्तिशाली गुरुओं का घिनौना चेहरा समाज के सामने उजागर किया है. इस पूरे ट्रायल में करसनदास की जेब से 14,000 रुपये खर्च हो गए थे. कोर्ट ने उन्हें 11,500 रुपये का मुआवजा दिया. ये केस इस बात की मिसाल बना कि आप कितने भी रसूखदार हों, कानून के सामने सब बराबर हैं. आमिर खान के बेटे जुनैद खान ने करसनदास मुलजी का रोल किया है, जयदीप अहलावत बने हैं यदुनाथ महाराज, यशराज फिल्म्स के बैनर तले बनी इस फिल्म को सिद्धार्थ पी मल्होत्रा ने डायरेक्ट किया है.
खैर ! अंततः फिल्म स्ट्रीम होगी और एक बार फिर देश की अदालतों ने इस कदर जिज्ञासा बढ़ा दी है कि इन दोनों ही फिल्मों को खूब दर्शक मुहैया करा देंगी ! स्टफ होगा तो हिट भी हो जाएंगी ! "हमारे बारह" का तो पता नहीं, "महाराज" हिट होने जा रही है. वैसे "महाराज" के किरदार में अहलावत तो पहले से ही खूब नाम कमा चुके हैं, यक़ीनन आमिर खान का छोरा जुनैद सुपर हिट होने जा रहा है !

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