क्या खूब नारी शक्ति वंदन है, नारी सशक्तिकरण है !

कि निर्वाचित महिला पंचों की जगह पतियों ने ले ली पद और गोपनीयता की शपथ ! जय बोलो पंच पति परमेश्वर की, नारी सशक्त हुई तो वह भी सशक्त हुआ ! जो हुआ सो हुआ और जाने भी दो चूँकि यही तो हकीकत है. गलत सिर्फ इतना हुआ कि गलती से वीडियो बन गया और वायरल भी हो गया, नतीजन पोलिटिकल हंगामा बरपा गया ! देश भर में एसपी यानी सरपंच पति और पीपी यानी प्रधान पति या पंच पति को किसी पद की तरह मान लिया गया है. बड़ी संख्या में महिला जन प्रतिनिधियों की जगह उनके पति, भाई या दूसरे रिश्तेदार उनका कामकाज संभालते रहे हैं. यहां तक कि पंचायतों की बैठक तक लेते रहे हैं. महिला विधायक, सांसद और मंत्री तक के मामलों में उनके पति के हस्तक्षेप के मामले भी समय-समय पर सामने आते रहे हैं. 

पंचायत वेब सीरीज याद आ रही है ना जहां गांव की प्रधान बनी महिला का कार्यभार संभालने उसका पति आगे रहता है. नाम से तो मंजू देवी गांव की प्रधान रहती है लेकिन कार्यभार संभालने के लिए उनके पति आगे रहते हैं और अपने को 'प्रधान पति' का नाम देते हैं. हालांकि छत्तीसगढ़ में जो हुआ या हो रहा है उसे बेशक यूँ समझें कि महिला किसी की भी मदद से काम करती है तो क्या परेशानी है? पुरुष भी तो अन्य की मदद से काम करते है उसके लिए तो कोई पाबंदी नहीं है फिर महिला के लिए क्यों? या फिर आपत्ति इसलिए है कि मददगार पति ही क्यों ? 

शर्मनाक ही हुआ ना कि ऐसा हुआ छत्तीसगढ़ की भाजपा महिला विधायक के क्षेत्र में पड़ने वाली ग्राम पंचायत में ! और तो और पंचायत एवं ग्रामीण विकास विभाग की प्रमुख सचिव निहारिका बारीक भी महिला है. और ज्यादा शर्मिंदगी तब हुई  जब मन चोर बीजेपी तंत्र ने इसे लापरवाही बता दिया जिसके लिए गाज भी गिरा दी बेचारे पंचायत सचिव पर ! मन चोर इसलिए कहा कि वोट बैंक की राजनीति के लिए महिला सशक्तिकरण के नाम पर सिर्फ और सिर्फ दिखावा ही है. ना तो नारी वंदन है दिल में ना ही महिलाओं को शक्ति देने का नेक इरादा है. दोष सिर्फ सत्ताधारी पार्टी को ही क्यों दें ? बाकी सब भी कम से कम महिलाओं के पैमाने पर चोर चोर मौसेरे भाई ही हैं. महिलाओं के लिए पंचायती राज में पचास फीसदी सीटें आरक्षित हैं, निकाय चुनावों में भी महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित है, और अब तो राज्यों की विधान सभाओं में और देश की संसद में भी सीटें दी जाने लगी हैं, आरक्षित भी की जाने लगी है, कालांतर में तैंतीस फीसदी सीटें महिलाओं के लिए ही होंगी. परंतु फिलहाल तो मजबूरी का नाम ही महिलाओं की भागीदारी है. 
खुद पद जीत चुकी औरतें मानती हैं कि औरतों को राजनीति की समझ नहीं और न ही गांव की जरूरतों का अंदाजा है. ऐसे में पति अगर उनकी जिम्मेदारी बांट रहे हैं तो इससे बढ़िया क्या होगा ?  ऐसे ही पतियों के लिए एक टर्म निकला- सरपंच पति या प्रधान पति या पार्षद पति या फिर महापौर पति !  ये वो पति होते हैं, जो खुद को पत्नी के पद का असल मालिक मानते हैं. यही मानसिकता ही थी कि कांग्रेस नेता अधीर रंजन चौधरी के मुखारबिंद से महिला प्रेसिडेंट के लिए राष्ट्र पत्नी निकल गया था ; वो लैंग्वेज प्रॉब्लम तो पोलिटिकल एक्सक्यूज़ था !     
यदि राज्य पंचायतों में महिला दावेदारों का हिस्सा बढ़ाकर 100% भी कर दें तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा. महिलाएं चुनाव लड़ती तो दिखेंगी लेकिन जीत के बाद नजारा बदल जाएगा. हकीकत समझिए एक सच्चे वाकये से ; यूपी के बलिया में एक शख्स ने पंचायत चुनाव लड़ने के लिए आजीवन ब्रह्मचर्य पालन का व्रत तोड़ दिया और हाथी सिंह नाम के इस शख्स ने उम्र की ढलान पर इसलिए ब्याह रचाया ताकि बीवी को महिलाओं के लिए आरक्षित सीट पर खड़ा कर सके.  अगर पत्नी जीतती है तो पद और ताकत का असल सुख तो पति को ही मिलेगा. इधर नवेली पत्नी घर पर रोटियां बनाएगी और पति के कहे कागजों पर दस्तख़त कर देगी. यही कारण है कि ग्राम प्रधान का पद महिलाओं के लिए रिजर्व होते ही शख्स ने अधेड़ उम्र में पहुंचकर एक बेहद युवा पत्नी से आननफानन शादी रचा ली. 

पत्नी के चुनाव जीतने पर खुद को प्रधान कहलवाने का ख्वाब कोई अजूबा नहीं है, और कहीं होता हो या नहीं हिन्दुस्तान में तो बाय डिफ़ॉल्ट होता ही है. परंतु निर्वाचित  पत्नी के स्थान पर खुद ही शपथ ले लें तो  पोल खुल गई ना ! और ये तो नागवार गुजरेगा ही !  

कमोबेश हर गांव में महिलाओं के लिए आरक्षित सीट पर महिलाएं खड़ी तो होती हैं लेकिन चुनाव वे नहीं, उनके पति लड़ते हैं. वही चुनाव प्रचार करते हैं, वही हाथ जोड़कर वोट मांगते हैं, गांव वाले भी अमुक नेता की पत्नी या फिर अमुक नेता की बहन को वोट देते हैं. उनका भरोसा नेता पर होता है या फिर नेता दबंग होता है न कि उनके घर की पत्नी या बेटी जिसे वे जानते तक नहीं ! नेताओं ने उन्हें चुनाव लड़ाया, चूंकि संवैधानिक मजबूरी के तहत खुद लड़ जो नहीं सकते थे ! कहने का मतलब डमी खड़ा कर दिया ! कुल मिलाकर व्यवस्था को प्रॉक्सी व्यवस्था कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी.   

पंचायत सीरीज में यही हकीकत तो दिखाई गई थी, ग्राम प्रधान के लिए बने दफ्तर में ग्राम प्रधान का पति विराजे होगा. वही फैसले लेगा. बात जब दस्तख़त करने की आए तो वह ऐंठ से अपनी पत्नी को पुकारेगा, वो आएगी और बिना पढ़े कागजों पर अपना लिख वापस रसोई को चली जायेगी ! 

संयोग देखिये इस घटना के सामने आने के कुछ दिन पहले ही सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर पंचायतों में महिलाओं की जगह उनके पति या रिश्तेदारों की भूमिका को खत्म करने के लिए गठित कमेटी ने अपनी रिपोर्ट पेश की थी और फिर महिला दिवस भी आने वाला था.  

कमेटी की रिपोर्ट क्या कहती है ? महिला जनप्रतिनिधि की जगह पति या किसी रिश्तेदार को काम करते पाए जाने पर कठोर दंड देने का सुझाव दिया है. रिपोर्ट कुछ वास्तविक वजहों का भी जिक्र करती है कि क्यों ऐसा होता है ? महिला जनप्रतिनिधि को, दूसरे निर्वाचित पुरुष प्रतिनिधियों द्वारा आधिकारिक, अर्ध-आधिकारिक और यहां तक कि अनौपचारिक बैठकों में भी नजरअंदाज किए जाने और दरकिनार किए जाने के अर्थ में भेदभाव का सामना करना पड़ता है. इसी से प्रभावित हो कर पंचायती व्यवस्था का संचालन करने वाले पुरुष अधिकारी भी ऐसा ही करते हैं. यहां तक कि पुरुष अधिकारी भी, चुने हुए पुरुष प्रतिनिधि से ही बात करना पसंद करते हैं. इससे सरपंच पति की व्यवस्था को बढ़ावा मिलता है. शिक्षा व अनुभव की कमी भी महिला जनप्रतिनिधि के आड़े आती है. 

 महिला सशक्तिकरण ,नारी वंदन सरीखी आदर्श बातों की कटु सच्चाई तो यही है कि बातें हैं बातों का क्या ? महिलाओं के लिए पितृ सत्ता मसीहा बनेगी, सोच ही बेमानी है ! शक्ति स्वरूपा महिलायें स्वयं को पहचाने इस मायने में कि ख़ुदी को कर बुलंद इतना कि हर तक़दीर से पहले ख़ुदा बंदे से ख़ुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है !   

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Prakash Jain

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