बारंबार खुद पर पड़ने लगी तो होश आना ही था ; शीर्ष अदालत को अदालतों की लाइव स्ट्रीमिंग नागवार गुजरने लगी है !
14 Mar, 2025
तब नैतिकता का ख्याल नहीं आता जब साथ खड़े अन्य तीन खंभों मसलन, विधायिका, कार्यपालिका और मीडिया, की चर्चाओं को उनके कहे को संदर्भ से परे ले जाकर गलत व्याख्या की जाती है, उन्हें शर्मसार किया जाता है. तब तो मीलार्ड यूट्यूबर्स की, कंटेंट क्रिएटर्स की, प्लेटफार्म की स्वतंत्र अभिव्यक्ति बता देते है.
अब जब यूट्यूबर्स, कंटेंट क्रिएटर्स साहस दिखाने लगे और अदालती कार्यवाही से सामग्री लेकर अपनी क्रिएटिविटी डालने लगे तो मिर्ची लगने लगी चूंकि मी लॉर्ड को आईना जो दिखा दिया ! औरों के लिए क्रिएट करें तो रचनात्मक स्वतंत्रता के तहत क्रिएटिव कहलाये ! सनसनीखेज बनाना कौन सा अपराध हो गया ? खूब सनसनीखेज पत्रकारिता होती है, खोजी होती है,मीडिया ट्रायल होता है,सब जायज मान लिए जाते हैं ! बस, उच्च और उच्चतम मीलॉर्ड पर सवाल नहीं आने चाहिए, बाकी तो ट्रायल न्यायाधीशों का ट्रायल हो तो हो ! वे भी तो करते हैं, अपील नहीं भी हुई तो कुछेक मामलों में मीडिया ट्रायल उन्हें प्रेरित कर देते हैं स्वतः संज्ञान लेने के लिए !
स्वप्निल त्रिपाठी बनाम भारत के सर्वोच्च न्यायालय में ऐतिहासिक फैसले ने अदालती कार्यवाही की लाइव स्ट्रीमिंग के युग की शुरुआत की, जिसका उद्देश्य निस्संदेह न्यायिक प्रक्रिया के साथ पारदर्शिता और सार्वजनिक जुड़ाव को बढ़ावा देना था. न्यायालय का यह दावा कि लाइव-स्ट्रीमिंग खुली अदालतों के सिद्धांत का विस्तार करेगी, सिद्धांत रूप में सराहनीय है. हालाँकि, वास्तविकता एक बिल्कुल अलग तस्वीर पेश करती है. जबकि इरादा जनता को कानूनी कार्यवाही तक बिना फ़िल्टर की पहुँच के सशक्त बनाना था, अनपेक्षित परिणाम गलत सूचना और गलतफहमी का प्रसार रहा है. पारदर्शिता का मूल सार तब खत्म हो जाता है जब चुनिंदा “मसाला क्लिप” सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर छा जाते हैं, जिससे न्यायिक कार्यवाही के बारे में जनता की धारणा विकृत हो जाती है.
शीर्ष न्यायालय के एक न्यायमूर्ति ने, जिनकी आने वाले समय में पूरी संभावना मुख्य न्यायाधीश बनने की है, कानूनी कार्यवाही को सनसनीखेज बनाने के लिए सोशल मीडिया पर संपादित सुनवाई क्लिप के प्रसार की आलोचना करते हुए इसके रोकथाम के लिए गाइडलाइन्स बनाने की मंशा भी जाहिर की है. सवाल है ऐसा हुआ क्यों ? क्या न्यायालय स्वयं दोषी नहीं है ? काश ! न्यायालयों ने रचनात्मक स्वतंत्रता के मानदंड एकरूप रखे होते ! मीम्स, रील्स व शॉर्ट्स की बदनाम गलियों के सौदागरों पर पूर्ण प्रतिबंध क्यों नहीं ?
निःसंदेह बदलाव या फिर कुछ नया होता है अच्छे के लिए ; परंतु प्रवृत्ति प्रबल होती है हर तकनीक को एक्सप्लॉइट करने की ! इस प्रवृत्ति पर रोक सेलेक्टिवेली नहीं हो सकती. कहने का मतलब इस प्रवृत्ति का शिकार न्यायालय हों तो गलत और यदि अन्य कोई भी हो तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ साथ रचनात्मक स्वतंत्रता की बिना पर प्रवृत्ति को बढ़ावा दे दिया जाता है. स्वच्छंद स्वतंत्रता बेलगाम ना हो पाए, गाइडलाइन्स तो व्यापक बनानी होगी सिर्फ न्यायपालिका के लिए नहीं !
यहां तक कि भारत के माननीय मुख्य न्यायाधीश, डॉ डीवाई चंद्रचूड़ ने खुद को गलत तरीके से प्रस्तुत क्लिप के जाल में फंसा पाया था, और जनता से अनुचित प्रतिक्रिया और दुर्व्यवहार का सामना किया था. दरअसल सोशल मीडिया के इन गिद्धों को मसाला चाहिए जो उन्हें जहाँ से मिले, जिसके बारे में मिले, उठा लेते हैं. वे भेद नहीं करते कि किसकी आन बान को बट्टा लगेगा ! तो फिर शीर्ष न्यायालय क्यों भेद करती है ? वह क्यों नहीं समझती कि जो कोई भी हाड़ मांस का बना है, न्यायमूर्ति हो या मंत्री संतरी से लेकर कोई भी आम आदमी हो, आन बान शान सबकी है !
व्हाट्सएप, इंस्टाग्राम, फेसबुक और यूट्यूब जैसे प्लेटफॉर्म पर "मीम्स", "रील्स" और "शॉर्ट्स" किसी के भी किसी भी संदर्भ से बने, दुरुपयोग ही कहलाएंगे ! बस, मी लार्ड वाकई समझें, तभी वे सच्चे अर्थ में पंच परमेश्वर कहे जाएंगे ! फिर सिर्फ यूट्यूबर्स को ,कंटेंट क्रिएटर्स को ही क्यों कठघरे में खड़ा करें ; प्रतिष्ठित डिजिटल चैनल मसलन लाइव लॉ या बार एंड बेंच कौन से दूध के धोये हैं ? वे कौन सी लाइव-स्ट्रीम की गई अदालती कार्यवाही की पवित्रता को बनाए रख रहे हैं ? ट्रायल के दौरान न्यायाधीश की प्रॉसिक्यूशन और बचाव पक्ष के अधिवक्ताओं के साथ हुई/ हो रही बातचीत में से सिलेक्टिवली अंश उठाकर हेडलाइन बनाते हैं और सनसनी फैलाते हैं.
प्रसिद्ध कहावत है जहाँ आग है वहां धुंआ है ! तो जो कोई भी हो, न्यायमूर्ति ही क्यों ना हो, उन्हें संभाषण में गरिमा रखनी ही होगी ; बेवजह क्यों ऐसी बात कही जाए जिसकी अन्यथा व्याख्या हो सके ! फिर अब जब न्यायिक कार्यवाही लाइव स्ट्रीमिंग हो रही है, तो बातचीत पब्लिक डिस्कोर्स ही हुआ ना, शुचिता अपेक्षित हैं. अब उच्च न्यायालय के माननीय जज देश के एक मुस्लिम बहुल इलाके को पाकिस्तान बता दे, वही सम्मानित जज महिला वकील के लिए "आजम खान ब्रांड" घनघोर आपत्तिजनक टिप्पणी कर दे, तो शीर्ष न्यायालय भले ही उनके कहे को कहने के संदर्भ की बिना पर सिर्फ फटकार लगा कर छोड़ दें, कथित यूट्यूबर्स, क्रिएटर्स के लिए तो भरपूर मसाला था ही सेंसेशन के लिए, व्यूज के लिए, क्लिक्स के लिए ! जब आजम खान को रोक नहीं पाए तो इन्हें क्या सिर्फ इसलिए रोक दोगे चूंकि टिप्पणी भी लार्ड ने की है ?
सौ बातों की एक बात है विकृति को रेग्युलेट किया जाना ज़रूरी है, लेकिन नियम कायदे ऐसे ना हो जो अदालती महानुभावों को तरजीह इस मायने में दें कि उन्हें सौ खून माफ़ है ! जनता के विश्वास की मोहताज सिर्फ न्यायपालिका ही क्यों ? कार्यपालिका, विधायिका और मीडिया की विश्वसनीयता भी बनी रहनी चाहिए ! मजाक या भ्रामक क्लिप के प्रसार को रोकने के लिए मजबूत नियमों की आवश्यकता है, फिर चाहे वह न्यायपालिका पर हो या विधायिका या कार्यपालिका या मीडिया पर हो. समय आ गया है कि बौद्धिक संपदा के तर्क को ताक पर रखा जाए. कब तक इसकी आड़ लेकर सांसदों, विधायकों और न्यायाधीशों को बचाया जाता रहेगा ? ये भी तो एक प्रकार का वीआईपी कल्चर हो गया ना ! कहें तो सही अर्थ में डिजिटली सार्वभौमिक होने का समय है.
प्रौद्योगिकी का लाभ सब को मिलना चाहिए, न्यायपालिका को भी उठाना चाहिए ; परंतु कड़े नियम कायदों के साथ जो हर क्षेत्र के लिए एकरूप हों, सामान हो ! पारदर्शिता, जन जागरूकता और हर विषय-वस्तु (अदालती भी) के जिम्मेदार उपयोग के बीच संतुलन बनाकर ही नैतिकता की आदर्श बातें की जा सकती है. हाँ, इसके लिए अलग अलग क्षेत्र से इनपुट लिए जाने होंगे. बात न्यायपालिका भर की करें तो यह बेहतर कार्यक्षमता के लिए मौजूदा प्रणालियों को मजबूत और आधुनिक बनाने के साधन के रूप में काम कर रही है. आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस बेस्ड सोल्यूशन न्यायपालिका के विभिन्न पहलुओं को बदल रहे हैं.
परंतु थ्रेट भी भारी है. ऐसी बातें सामने आई हैं जहाँ चैटजीपीटी जैसे प्लेटफॉर्म ने "फर्जी केस उद्धरण और मनगढ़ंत कानूनी तथ्य" तैयार किए थे. निःसंदेह AI कानूनी डेटा की विशाल मात्रा को संसाधित कर सकता है और त्वरित सारांश प्रदान कर सकता है, पर इसमें मानवीय स्तर की समझदारी के साथ स्रोतों को सत्यापित करने की क्षमता का अभाव है. इससे ऐसी स्थितियाँ पैदा हुई हैं जहाँ वकील और शोधकर्ता, AI द्वारा उत्पन्न जानकारी पर भरोसा करते हुए, अनजाने में गैर-मौजूद मामलों या भ्रामक कानूनी मिसालों का हवाला देते हैं. और तो और, AI का उपयोग अदालती नतीजों की भविष्यवाणी करने के लिए भी किया जा रहा है, ठीक वैसे ही जैसे पिछले दिनों बता दिया था कि इंडिया चैंपियन ट्रॉफी जीत रही है. तो सवाल है क्या AI की भूमिका सही है ? क्या मानवीय भावनाओं और नैतिक तर्क से रहित एक मशीन कानूनी विवादों की जटिलताओं और बारीकियों को सही मायने में समझ सकती है? नैतिक विचारों, सहानुभूति और प्रासंगिक समझ जैसी मानवीय भावनाएं एल्गोरिदम की पहुंच से परे हैं. सो भारी चैलेंज है कि कैसे सुनिश्चित किया जाए कि प्रौद्योगिकी मानवीय निर्णय के स्थान पर सहायक के रूप में काम करे ?
इस बात को कौन नकार सकता है कि प्रौद्योगिकी ने पारंपरिक कागज-आधारित रिकॉर्डों के स्थान पर डिजिटल प्रणालियों के माध्यम से केस प्रबंधन में क्रांति ला दी है, जिससे मामलों की वास्तविक समय पर ट्रैकिंग, सुनवाई का स्वचालित समय निर्धारण और निर्बाध दस्तावेज प्राप्ति संभव हो गई है. कहना पड़ेगा ए आई संचालित शेड्यूलिंग टूल जबरदस्त है, इतना समर्थ है क़ि कार्यभार और एक्सपेर्टीज़ के आधार पर न्यायाधीशों को केस एलॉट किये जा सकते हैं !
अदालती कार्यवाही के लिए हाइब्रिड वीडियो-कॉन्फ्रेंसिंग के एडॉप्शन से भारतीय न्याय प्रणाली की पहुँच बढ़ रही है. देश के किसी भी हिस्से से वकील अब लॉग इन कर सकते हैं और अदालतों के समक्ष अपनी दलीलें पेश कर सकते हैं, जिससे भौगोलिक बाधाएं दूर होंगी और व्यक्तिगत रूप से पेश होने से जुड़ी चुनौतियां कम होगी, बशर्ते यह सुविधा तथाकथित सीनियर अधिवक्ताओं की बपौती ना बन जाए ! क्योंकि आईडिया तो यही था कि परंपरागत रूप से, वकील और वादी उच्च न्यायालयों, विशेषकर सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में उपस्थित होने के लिए की जानी वाली लंबी यात्राओं और संबंधित खर्चों को बचाया जा सके, साथ ही क्वालिटी कानूनी प्रतिनिधित्व केवल उन लोगों तक सीमित नहीं रहे जो राजधानी शहरों की यात्रा करने में सक्षम हैं. फायदे और भी हो रहे हैं मसलन कार्यवाही का प्रतिलेखन, अनेक अनेक भाषाओं में अनुवाद आदि आदि !
और अंत में रेग्युलेशन उस हद तक जरूरी है जिसके आगे जाने से प्रौद्योगिकी अभिशाप बन जाती है. जरूरत इस हद की पहचान भी है, सिर्फ न्यायिक क्षेत्र में ही नहीं बल्कि हर सार्वजनिक क्षेत्र में !
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