
सिनेमा के दृष्टिकोण से 'दसवीं' की बात करें तो विधा के विभिन्न विषयों में से कास्टिंग ज़रूर डिस्टिंक्शन लाती है जबकि अन्य विधाएँ ख़ासकर कथानक फिसड्डी ही साबित हुए हैं; नतीजन फ़िल्म “दसवीं” फेल कर दी गई है ! और तो और , लगता है परीक्षक गण ( व्यूअर्स) ग्रेस मार्क्स देने से भी हिचक रहे हैं !
दरअसल हिंदी पट्टी की चिंता दीगर है व्यूअर्स साउथ की फिल्मों को जो पसंद करने लगे हैं क्योंकि जहनी तौर पर कोई सिनेमा लंबे समय तक असर छोड़े, ऐसा कुछ बॉलीवुड फिल्मों में कम ही नजर आ रहा है।
चिंता कलाकारों की भी कम नहीं है ; विषय वस्तु से आकर्षित होकर वे पिक्चर करते हैं लेकिन सपाट और सतही कहानी उनकी सारी मेहनत पर पानी फेर देती है ! और व्यूअर्स पॉइंट ऑफ़ व्यू से बात करें तो पिक्चर के स्ट्रीम होने के पहले या रुपहले पर्दे पर लगने के पहले व्यूअर्स स्ट्रांग कास्ट और सब्जेक्ट की वजह से काफी उम्मीदें बांध लेते हैं। लेकिन फिल्म देखकर उनके दिलों में जहर उतर आता है !
चिंता अभिषेक बच्चन के लिए भी हो रही है ! जब जो किरदार निभाते हैं, खूब मेहनत करते हैं वे ! कुछ तो द्वंद्व है उनमें 'अपने मन की करें या फिर सलाह मानें' ; स्वाभाविक भी है, माता,पिता, पत्नी सभी चोटी के कलाकार जो है ! शायद इसी वजह से रिज़र्व से रहते हैं वे ! अब मणिरत्नम सरीखा निर्देशक तो हर कोई हो नहीं सकता ! "युवा" और "गुरु" में अभिषेक अभिनय के शिखर पर उनकी बदौलत ही पहुंचे थे ! बहुत ज्यादा फ़िल्में वे करते नहीं या यूँ कहें कि वे मेकर्स की लास्ट चॉइस होते हैं। हालाँकि हालिया कुछ फिल्मों और कंटेंट्स मसलन 'लूडो' , 'मनमर्जियां' , 'बिग बुल' , 'बॉब विश्वास' से खूब आस उन्होंने बंधाई थी और जब "दसवीं" पास करने के उनके संकल्प के बारे में दर्शकों ने सुना तो हाइप क्रिएट हो ही चुका था ! निर्देशक मिला तो तुषार जलोटा मिला जिन्हें शायद दूसरा कोई हीरो मिला नहीं था ! और तुषार ने 'राइट टू एजुकेशन' सरीखा यूनिक विषय तो उठाया पर उसे हिंदी सिनेमा के घिसे पिटे खांचों में ही रखा। स्पष्टतः उनकी कल्पनाएं कमतर हैं और वे नई भी नहीं हैं। अब चूँकि अभिषेक लीड रोल में हैं तो भुगतना उनको पड़ेगा ही भले ही "दसवीं" पास करने के लिए उन्होंने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी और पास भी हुए !
बात कल्पनाओं की करें या कुछ नयेपन की करें तो इसी फन के माहिर हैं साउथ के मेकर्स ! यही "दसवीं" कोई साउथ का मेकर बनाता तो इसी स्टफ में उनकी कल्पना चार चाँद लगा देती और पिक्चर सुपर हिट साबित होती !
एक कहावत है 'कहीं का पत्थर कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा, भानुमति ने कुनबा जोड़ा !' आजकल मौलिकता तो रह ही नहीं गई है लेखन में ! सो फिल्म में एक फिक्शनल "हरित प्रदेश" है जिसमें हरियाणा के कभी मुख्यमंत्री रहे ओमप्रकाश चौटाला के जेल में रहते हुए दसवीं पास करने की कहानी है , बिहार में राबड़ी देवी धर्मपत्नी सजायाफ्ता पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव के ताजपोशी की कहानी भी है और यूपी की पूर्व सीएम मायावती की बहुचर्चित और विवादास्पद कार्यशैली की झलक भी है !
पता नहीं हरियाणवी जाटों ने , खापों ने, वहां के किसानों ने और किसी आन्दोलन जीवी महिला संगठन ने भी क्यों नहीं "दसवीं" का विरोध किया जबकि वे आधार खूब थे जिन पर फिल्मों का सपोर्ट या विरोध किया जाता है ? जाट हरित प्रदेश के औचित्य पर ही बवाल मचा सकते थे ; लंबे समय से जारी राजनितिक संघर्ष का मजाक जो उड़ाया गया है , खाप पे भी तंज कसा गया है , महिलाओं को अक्षम और अकर्मण्य बताने में भी कोई कोर कसर बाकी नहीं रखी गयी है ! और तो और ब्यूरोक्रेट्स भी निशाने पे हैं जो हर वो काम करता है जो मुख्यमंत्री कहता है ! ऑन ए लाइटर नोट किसी एक कोने से भी ऐसा हो जाता तो फिल्म का कारोबार तो चल ही जाता !
चूंकि विरोध विरोध हुआ नहीं, होता भी कैसे ? पिक्चर चुपचाप बिना किसी प्रमोशन के फाइनली नेटफ्लिक्स पर स्ट्रीम होने लगी ; हश्र जो मालूम था मेकर्स को ! थोड़ा बहुत प्री रिलीज़ का माहौल बनता, हाइप सा क्रिएट होता तो वेस्टेड इंटरेस्ट मुखर होते ना ! पूरी पिक्चर में मुख्यमंत्री गंगाराम चौधरी (अभिषेक बच्चन ) और जेल सुपरिन्टेन्डेन्ट ज्योति देसवाल (यामी गौतम ) के साथ के एक दो सीन छोड़ दें तो "दसवीं" की कहानी आद्योपांत( शुरू से अंत तक ) हिंदीपट्टी के होनहार व्यूअर्स भांप लेते हैं, पर्दे पर घटनाएं घटने से पहले ही समझ आती रहती है। लगता है बॉलीवुड की फिल्मों ने यही रीत अपना ली है या फिर मेकर्स व्यूअर्स की तेजी से बदली चाहतों के साथ सामंजस्य नहीं बैठा पा रहे हैं ! वरना कोई कारण नहीं है कि इन्हीं फार्मूलों के सहारे साउथ की फ़िल्में ऐसी ही विषय वस्तु को लेकर बनती है और सफल हो रही हैं !
'राइट टू एजुकेशन' सरीखे सीरियस मुद्दे की कॉमेडी ही बन गई है चूंकि फिल्म है ही कॉमेडी जोनर की ! हरियाणवियों से क्षमा याचना सहित बता दे रहे हैं कि पिक्चर में बोलचाल हरियाणवी है, सुनते हुए हंसी छूटने की गारंटी जो मिल जाती है।
सुना डॉक्टर कुमार विश्वास ने इस फिल्म के संवाद लिखे हैं, साथ ही पटकथा को कंसल्टेंसी भी दी है ! कहना पड़ेगा बेहतरीन लिखे हैं परंतु कन्फ्यूज्ड सी कहानी ने संवादों के ह्यूमर को , चुटीलेपन को असरहीन सा कर दिया। कहने को तो कुमार कहते हैं कि चूँकि फिल्म एक मैसेज देती प्रतीत हुई, समाजबोधि सरीखी लगी तो उन्होंने पटकथा कस दी ; लेकिन इस मायने में वे असफल ही सिद्ध हुए हैं। वैसे पिक्चर जब तब थोड़ी बहुत दम भरती है तो उनके संवादों के बल पर ही ! निःसंदेह डायलॉग ही हैं कि मका भाई, लठ्ठ गाड़ दिए म्हारे चौधरी नै और सबन्नै भी दसवीं मैं !
यूँ तो 'कतई जहर है जहर है जहर है' जाट नेता गंगा राम चौधरी का प्रचलित पैट्रिआर्की किस्म का हरियाणवी तकिया कलाम है जो वे उसी अर्थ में बोलते हैं लेकिन कुमार विश्वास द्वारा लिखे संवाद निश्चित ही कति जहर है। जहर हैं ! फिल्म का ही एक दिलचस्प डॉयलाग भ्रष्ट राजनीति पर चोट करता है जब एक कैदी गंगाराम से कहता है, "आपका मिज़ाज अलग ही है चौधरी साहब, हंसी मजाक में ही सही, खाने-पीने की बात तो मानते हो !" आज की गंदी राजनीति पर सटीक सा बैठता एक और है - गंगा राम चौधरी की पत्नी विमला देवी(निम्रत कौर) के हाथों में सत्ता आने से उसका आत्मविश्वास और घमंड भी बढ़ता जाता है, जिसकी वजह से वो चौधरी के जेल से बाहर निकलने के बाद भी कुर्सी नहीं छोड़ती और कहती है,"पॉलिटिक्स में रिश्ते नहीं फायदो जरूरी होवे हैं !" हालांकि समझ नहीं आया वकील की लानत मलानत करने के लिए कुमार ने चीप सा डायलॉग किस मानसिकता से लिखा, ”तूने कर लिया काला कोट, अब मैं करूंगा बालाकोट !”
एक और डायलॉग है, जो गंगा राम चौधरी का किरदार बार-बार बोलता है,”इतिहास से ना सीखने वाले खुद इतिहास बन जाते हैं !” दरअसल ये बात ‘दसवीं’ के मामले में एकदम फिट बैठती है ; काश ! डायरेक्टर जलोटा ने स्वयं पर इसे लागू किया होता और थोड़ी मेहनत कर लेते !
बात करें एक्टरों की तो अभिषेक बच्चन मुख्यमंत्री गंगाराम चौधरी के किरदार में वाकई लाजवाब है आखिर 'दसवीं' पास कर ही ली ! और यदि ज्यादा किसी ने छेड़ा तो वे आईएएस वाईएस भी कर लेंगे ; ऐसा उनका आत्मविश्वास है ! उनकी पत्नी विमला देवी चौधरी का किरदार फुल कॉन्फिडेंस और मजे के साथ निभाया है निमरत कौर ने ! गाय भैंसों को चारा खिलाने वाली अशिक्षित गंवार महिला जब अंतरिम सीएम बना दी जाती है तब उसका रंगा सियार सरीखा बर्ताव करना शायद निमरत ही निभा सकती थी ! यामी गौतम भी जेल सुपरिंटेंडेंट ज्योति देसवाल के किरदार में, हालांकि टाइप्ड सी लगी है, डिस्टिंक्शन क्वालीफाई करती है। अन्य सभी कलाकारों मसलन दानिश कुरैशी (लाइब्रेरियन नहीं रायबरेली ), अरुण कुशवाहा (घंटी) आदि भी अच्छे रहे हैं। स्पेशल मेंशन सचिन श्रॉफ के लिए भी है जो वर्तमान के मुख्य विपक्षी नेता की झलक देते हैं।
म्यूजिक साधारण है, फिल्म मेकिंग से तालमेल नहीं बैठ पाता है। सिनेमेटोग्राफी भी औसत ही है, कैमरा कोई कमाल नहीं करता। एडिटिंग सुस्त रही है ; फिल्म की अवधि के दुरुस्त किये जाने का स्कोप था ; यदि ऐसा हो पाता तो फिल्म कम से कम ओटीटी पर तो धमाल मचा ही देती !
लगता है मेकर्स एंटरटेन और एड्यूकेट करने के मकसद को साथ साथ निभाने के चक्कर में अलग अलग चीजें करते चले गए और 'माया मिली ना राम' वाली कहावत सार्थक कर बैठे ! ढेर सारे टॉपिक के साथ 'टच एंड गो' सा समां बांधने के चक्कर में बंटाधार हो गया। एक पल राजनीति, दूसरे पल नैतिकता, फिर जाति व्यवस्था , और फिर करप्ट सिस्टम - ऐसा भटकाया कि किसी भी मुद्दे पर कन्विंस नहीं कर पाए। स्मार्ट बनने की कोशिश में तमाम रेफेरेंस भी उठाये मसलन गंगा राम चौधरी का आजादी के वक्त के गांधी, आजाद , भगत सिंह , लाला लाजपत राय,बोस जैसी विभूतियों की ओर आकर्षित होना , ‘तारे ज़मीन पर’ से लेकर ‘रंग दे बसंती’ और ‘लगे रहो मुन्ना भाई’ जैसी फिल्मों का इस्तेमाल होना, मगर स्क्रीन पर जो कुछ भी घट रहा होता है, उस पर यकीन तो नहीं होता !

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