गाहे बगाहे सुप्रीम शिकवा भर सुनते हैं, फैसला क्यों नहीं देते ?

कल ही तो खूब कटाक्ष किया था न्यायमूर्ति ने, बात अपनी बिरादरी की जो थी ! वर्ना तो कभी शीर्ष न्यायालय ने कहा था कि कोई सिंगापुर भेजने का वादा करे तो चुनाव आयोग कैसे रोकेगा ? वादे हैं वादों का क्या तो वादों पर क्या संज्ञान लें ?      

दरअसल कल तक वादे वादे भर ही रह जाते थे, फर्क, अच्छा या बुरा, क्या पड़ना था ? बात वोटरों को लुभाने भर की थी, होड़ लुभाने की थी, जो जीत गया वो सिकंदर; बाकी वादे धरे के धरे रह जाते थे, चुनावी जो थे ! फर्क पड़ने लगा जब वादे पूरे किये जाने लगे और वोटों की गारंटी होने लगी ! नतीजन राजकोष को चोट पड़ने लगी, आखिर पैसे पेड़ पे तो नहीं उगते ना!                  

कहने का मतलब दे दिया जो वादा किया ! लैपटॉप दिया, साइकिल दिया, स्कूटी दिया, फ्री बिजली दे दी, लोन माफ़ कर दिया, बस फ्री कर दी, महिलाओं को नगद नारायण दे दिया, कोविड जनित फ्री अनाज दिया तो देते ही जा रहे हैं!  डिफाल्टर की कर्जमाफी... फोकट की स्कूटी...हराम की बिजली...हराम का घर...दो रुपये किलो गेंहू...एक रुपया किलो चावल...चार से छह रुपये किलो दाल...और कितना चूसोगे टैक्स दाताओं को?  क्या ये खुल्लम खुल्ला रिश्वत नहीं? क्या इससे चुनाव प्रक्रिया बाधित नहीं हो रही ! क्या इन सब प्रलोभनों से चुनाव निष्पक्ष होंगे? कोई चुनाव आयोग है भी कि नहीं इस देश में ! आयोग की कोई गाइडलाइन है भी या नहीं? "तुम हमें वोट दो ; हम तुम्हें ......." जहाँ देने की शर्त वोट है, वही देना गैरकानूनी होना ही चाहिए ! खुल्लम खुल्ला रिश्वत जो है ! राजकोष राजस्व से बनता है, राजस्व जनता की गाढ़ी कमाई का पैसा होता है, जिसे जो जीतता है, वोटरों पर फ्री लुटा दे रहा है ! गरीब हैं, थोक के वोट बैंक है, इसलिए फोकट खाना, घर, बिजली, कर्ज माफी दिए जा रहे हैं ! बाकी लोग किस बात की सजा भोगें ? जबकि होना ये चाहिए कि हमारे राजस्व से बने राजकोष से सर्वजन हिताय काम हों, देश के विकास का काम हों, रेल मार्ग, सड़कें, पुल दुरुस्त हों,रोजगारोन्मुखी कल कारखानें हों, विकास की खेती लहलहाती हो, तो सबको टैक्स चुकाना अच्छा लगता.. ।

लेकिन राजनीतिक पार्टियां तो देश के एक बहुत बड़े भाग को शाश्वत गरीब ही बनाए रखना चाहती है, उसके लिए रोजगार सृजन की अनुकूल परिस्थिति बनाने की बजाए तथाकथित सोशल वेलफेयर की खैराती योजनाओं के माध्यम से अपना अक्षुण्ण वोट बैंक स्थापित कर रही है. और परोक्ष रूप से इसी पर कटाक्ष किया है शीर्ष अदालत के न्यायमूर्ति ने जब वे महाराष्ट्र की लाड़ली बहना और दिल्ली में राजनीतिक दलों द्वारा नकद राशि बाँटने की गई घोषणाओं का जिक्र करते हुए कहते हैं कि राज्यों के पास मुफ्त रेवड़ियां बांटने के लिए तो पैसे हैं लेकिन जजों को भुगतान करने के लिए नहीं हैं. 

कोर्ट ने बिल्कुल गुरेज नहीं किया कहने से कि राज्यों के पास उन्हें देने के लिए पर्याप्त पैसा है जो कोई काम नहीं करते और जब जिला अदालत के जजों को वेतन और पेंशन देने की बात होती है तो वित्तीय कमी की बात करते हैं. शीर्ष अदालत का आशय यही है कि सहायता रोजगारोन्मुखी हो, रेवड़ी नहीं !   

सुप्रीम कोर्ट ने पिछले साल दिसंबर में ही कहा था कब तक ऐसे मुफ्त राशन बांटा जाएगा ?  सरकार रोजगार के अवसर क्यों नहीं पैदा कर रही?  केंद्र सरकार की बेशर्मी ही कहेंगे जिसने अदालत को बताया कि राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम 2013 के तहत 81 करोड़ लोगों को मुफ्त या रियायती राशन दिया जा रहा है और केवल करदाता ही (प्रत्यक्ष कर या परोक्ष कर)  इससे बाहर हैं.  तो भाई, उन्हें भी दे दो ना ! बराबरी की मिसाल कहीं तो बैठेगी !  

तक़रीबन एक दशक पहले इसी शीर्ष अदालत ने पोलिटिकल पार्टियों के वादों को जायज ठहराया था ; हाँ, राइडर दे दिया था चुनावी घोषणा पत्र में उल्लेखित किये जाने को ! साथ ही कह दिया था कि सरकार पैसे कहाँ खर्च करे, सीएजी को क्या सरोकार ?  

अब तो आशंका भर नहीं, तय हो चला है कि रेवड़ी कल्चर ना केवल चुनाव की निष्पक्षता को बाधित कर रहा है बल्कि राज्य दर राज्य और अंततः देश को दिवालियेपन की कगार की ओर ले जा रहा है. यही तो शनै शनैःआर्थिक दुष्चक्र की ओर बढ़ते कदम है जिसका खामियाजा पडोसी देशों मसलन पाकिस्तान, श्रीलंका की जनता भुगत रही है.    

जरूरत है सुप्रीम डंडे की ताकि चुनाव आचार संहिता में ही लोक लुभा वन  वादों और रेवड़ियों के लिए सख्त और त्वरित दिशा निर्देश सम्मिलित किये जाएं. नोटिस नोटिस बहुत हुआ अब, शीर्ष अदालत फैसला लें !   

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Prakash Jain

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