दरअसल बोलने की आज़ादी और अश्लीलता के मध्य महीन रेखा ही है ! कॉमेडी के लिए अश्लील और असभ्य क्यों हो रहे हैं वे, जो आज सोशल मीडिया पर नामचीन हैं ? उत्तर स्पष्ट है, व्यूअर्स मिलते हैं उन्हें ! तो दोषी दोनों ही हुए ना ! एक लिहाज से देखें तो दीर्घा में बैठे ठहाका लगाने वाले लोगों का दोष ज्यादा है ! चूंकि फ्रीडम ऑफ़ स्पीच है तो क्या इन शोज़ को कॉमेडी करार देकर क्लीन चिट दे दें ? सवाल इसलिए है कि क्या कभी भी, कहीं भी, किसी के द्वारा भावनायें आहत हो सकती है या फिर भावनाओं के आहत होने की बिना पर मामला बना दिया जाए इस कुकृत्य के लिए ! यही महीन रेखा है जिसके अनुरूप वर्जित फल परिभाषित होता है, परंतु जब बात वर्जित फल से आगे निकल जाए तो .............. ! और जब प्रतियोगिता ही होने लगे कि "वो अश्लील भला क्या अश्लील हुआ, जिस अश्लील की चर्चा घर पे हो" ........ क्या ही कहें, वितृष्णा ही होती है !
सवाल है व्यूअर्स मिलते ही क्यों है ? जवाब कोई रॉकेट साइंस नहीं है ! मानसिक विकृति अपवाद स्वरूप नहीं है, जताना भर है ! तक़रीबन सारे के सारे स्टैंडअप कॉमेडी शोज़ इस सिद्धांत पर आधारित हैं कि वर्जित फलों की बातें कर वे सेंसेशन पैदा कर सकते हैं चूंकि ऐसा अनेकों ने अनुभव ना भी किया होगा तो कभी न कभी सोचा तो ज़रूर होगा. लाइक माइंडेड ऑडियंस जुड़ती चली जाती है और वैसे तो हैं ही जो दिखना तो नहीं चाहते लेकिन एस्केप रूट से देखकर, सुनकर एन्जॉय कर लेते हैं, अपनी अनवरत विकृत बुभुक्षा को आहार दे ही देते हैं !
हाल ही में India’s Got Latent में समय रैना के पॉडकास्ट में रणवीर अल्लाहबादिया द्वारा एक प्रतिभागी से किया गया अश्लीलता की पराकाष्ठा पार करते हुए एक प्रश्न था जो निःसंदेह पूर्णतया अस्वीकार्य था, अनैतिक था, एक विकृति ही थी. रणवीर ने माता पिता के यौन संबंधों के बीच युवा होते पुत्र की सहभागिता जैसी विकृत सोच का खुले आम प्रश्न पूछा था. एक और इन्फ्लुएंसर थी शो में, महिला थी लेकिन शो में लड़कियों के प्राइवेट पार्ट के बारे में गलत बात की और अभद्र भाषा का प्रयोग भी किया. सवाल है ऐसा कंटेंट उपजा ही क्यों ? दरअसल आज की युवा पीढ़ी और ये तथाकथित कंटेंट क्रिएटर्स, पश्चिमी ट्रेंड्स की बेहूदा नकल करते हुए"फ्री स्पीच" की आड़ में सारी मर्यादाओं का जनाजा निकालने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं ! अब एफआईआर हो या किसी एक या दो को पकड़ भी लिया , होना जाना कुछ नहीं सिवाय लानत मलामत के चूंकि विधि विधान में एस्केप रूट मिल ही जाता है ! उलटे ये क्रिएटर/परफ़ॉर्मर नाम कमा ले जाते हैं ! कहने का मतलब सोशल मीडिया पर ये अति करते हैं और मीडिया इनको सर पर चढ़ा लेता है कि बेचारों को पुलिस परेशान कर रही है, इनकी फ्रीडम ऑफ़ स्पीच का गला घोट रही है. सोचना तो पड़ेगा कि क्या हमारा मनोरंजन इतना सतही और निम्न स्तर का हो गया है कि उसमें शालीनता और संवेदनशीलता के लिए अब कोई जगह ही नहीं बची? माना कि पश्चिमी देशों में ऐसे अश्लील, बेहूदा और शर्मसार करने वाले पॉडकास्ट और स्टैंडिंग कॉमेडी सपरिवार देखी जाती हों और उस पर तालियां भी बजाई जाती हों पर क्या हमारी संस्कृति हमें उनकी नग्नता का अनुसरण करने को कहती है? हमारे यहाँ तो पति पत्नी के मध्य भी मर्यादा युक्त यौन सुचिता का भी पूरा ध्यान रखा जाता है. पर दुर्भाग्य से आज के पॉडकास्ट और डिजिटल कंटेंट, जिनके कंधों पर युवाओं को सही दिशा में ले जाने का दायित्व है वे उल्टा उन्हें अभद्रता, अश्लीलता और विस्फोटक सोच की ओर ले जा रहे हैं.
अश्लीलता कोई नया मुद्दा नहीं है. अनेकों रचनाकारों पर, यहाँ तक कि नामचीन लेखकों पर भी, हर काल में अश्लीलता के आरोप लगते रहे हैं. तमाम अश्लील साहित्य भी हर काल में उपलब्ध रहा है, थर्ड ग्रेड के राइटरों ने खूब अश्लीलता फैलाई है, उनके रीडर्स भी बहुतायत में रहे हैं, छद्म मस्तराम की सस्ती चंद पन्नों की अश्लील किताबें खूब बिकती रही है, कामोत्तेजना के लिए. परंतु कुछ भी खुल्लम खुल्ला तो नहीं होता ना ! सब कुछ छुपा कर, शर्म हया को ताक पर कभी नहीं रखा गया ! फिर साहित्यिक अश्लीलता के आरोप जब भी जिन पर भी लगे, व्यक्तिपरक ही रहे हैं. कहने का मतलब रचना इतनी भारी भरकम रही है कि अश्लील है भी तो व्यापकता नहीं पाती ! चंद बुद्धिजीवी पढ़ लेते, परस्पर चर्चा कर लेते और निष्कर्ष स्वरुप रचनाकार को साहसी घोषित कर देते ! खजुराहो की कामसूत्र दर्शाती नग्न मूर्तियां उत्कृष्ट कला कही जाती है, तो उन्हें व्यापक तो नहीं बना सकते ना !
कोई भी कंटेंट अश्लील है या नहीं - टेस्ट क्या होना चाहिए ? सीधी सी बात है अश्लील को अश्लील तब तक नहीं कहा जा सकता जब तक वह क्लोज्ड डोर के अंदर है. इस्मत मंटो हाजिर पे हाजिर होते रहे , अंततः बरी हो गए और साहसी भी कहलाए. उनकी विवादास्पद कहानियों पर विवाद तभी मचा जब समकालीन प्रतिस्पर्धी रचनाकार इसलिए जल भुन गए कि वे क्यों कर ऐसा साहस नहीं दिखा पाए ? इस्मत, मंटो और कालांतर में अन्यों को भी इसलिए कानूनी पचड़ों से उलझना पड़ा चूंकि ईर्ष्यावश किसी ने इन रचनाकारों की कृतियों को अश्लीलता के पैमाने पर व्यापकता देकर चिंगारी भड़का दी ! साधारण पाठक सतही जो होता है, उसे रचना की संपूर्णता से क्या लेना देना ?
यदि किसी महिला ने कुछ यूँ पढ़ दिया कि "सूँ...सूँ...साँ...साँ...सूँ...सूँ...साँ...साँ...बड़ी देर से करवट बदल रही है कुआँरी पड़ोसिन,अभी-अभी पालतू कुत्ते की तेज़ हाँफ सुनाई पड़ने लगी है", वह तब तक अश्लील नहीं जब तक जिनके सामने पढ़ा, उन तक ही रहा ! अब यदि किसी सुनने वाले ने महिला के इस पढ़े को अश्लील बताते हुए प्रचारित कर दिया तो वह बेचारी निशाने पे आ ही जायेगी ! कुछ ऐसा ही तो हो रहा है ना इन कथित विकृत पोडकास्टरों के साथ, जबकि यूट्यूब ने पॉडकास्ट हटा भी लिया है और जब मौजूद था तब भी सिर्फ प्राइवेट पेड सदस्य ही देख सकते थे ! उन्हीं पेड लॉयल लोगों में से ही एक या एक से अधिक सदस्यों ने इसे योजनाबद्ध तरीके से अपनी विकृत मानसिकता को खाद पानी देने के उद्देश्य से प्रोपेगेट कर दिया ! और अब इन पोडकास्टरों को भुगतना ही पड़ेगा. हालांकि हश्र वही होगा जो अमूमन ऐसे मामलों में होता आया है यानी सभी बरी हो जाएंगे और ज्यादा से ज्यादा अदालतें उनकी भर्त्सना कर बैलेंसिंग एक्ट का इजहार कर देगी !
और यही होता दिख भी रहा है. पता नहीं अल्लाहबडिया है या इल्लाहाबादिया है, उसने संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की, जिसमें अश्लीलता के कथित अपराध के लिए देश के विभिन्न हिस्सों में उनके खिलाफ दर्ज की गई कई एफआईआर से राहत मांगी गई है. सुनवाई के दौरान शीर्ष न्यायाधीश ने उसे फटकार लगाते हुए यह कहने से गुरेज नहीं किया कि उसके दिमाग में कचरा भरा हुआ है ; परंतु इस हद तक राहत तो दे ही दी कि उसकी गिरफ्तारी नहीं होगी और वह जांच में सहयोग करेगा. यह मामला अब अश्लीलता को नियंत्रित करने वाले कानूनों, विशेष रूप से इंटरनेट पर प्रसारित होने वाले कानूनों के बारे में महत्वपूर्ण मुद्दों को सामने लाता दिख रहा है.
सवाल है यह कैसे तय होगा कि कोई कार्य अश्लीलता के दायरे में आता है या नहीं? सदियों से भारत की अदालतें अश्लीलता के मामलों पर फैसला करने के लिए देखती आयी है कि जिस कथित सामग्री पर आपत्तिजनक होने का आरोप लगाया गया है, क्या उसमें ऐसे लोगों को भ्रष्ट करने की क्षमता है, जिनके दिमाग ऐसे अनैतिक प्रभावों के प्रति संवेदनशील हैं और जिनके हाथों में इस तरह का प्रकाशन पड़ सकता है. यदि ऐसा है तो इस बात की बहुत अधिक संभावना है कि सामग्री युवा और वृद्ध दोनों लोगों के मन में अत्यधिक कामुक और अशुद्ध प्रकृति के विचार उत्पन्न कर सकती है. परंतु परिस्थिति बदली हैं. आज हिंसक और अहिंसक स्पष्ट सेक्स को प्रदर्शित करने वाली अश्लील सामग्री निश्चित ही प्रतिबंधित की जानी चाहिए क्योंकि इनके द्वारा पार्टिसिपेंट्स कठोर और अपमानजनक व्यवहार के लिए प्रेरित होते हैं. लेकिन यदि स्टफ में ऐसा अहिंसक स्पष्ट सेक्स शामिल है जो न तो अमानवीय है और न ही अपमानजनक है, वह स्वीकृत ना भी हो तो भी प्रतिबंध क्वालीफाई नहीं करता. और जब कानूनन प्रतिबंध नहीं किया जा सकता तो वे, जो भी हैं, सजा के लिए भी तो क्वालीफाई नहीं करेंगे. हाँ, नैतिक रूप से दोषी जरूर हैं वे जिसकी सजा सिर्फ और सिर्फ भर्त्सना और बहिष्कार भर ही हो सकती है.
निःसंदेह, रैना का पॉडकास्ट और इसके तमाम प्रतिभागी अवश्य ही विकृत मानसिकता प्रदर्शित करते हैं, परंतु उनका स्टफ ना तो वायलेंट है ना ही अपमानजनक है और ना ही अमानवीय है. डांट फटकार लग गई, बहुत हुआ ! मामला खानापूर्ति के पश्चात् रफा दफा हो जाएगा ! उनकी फ्रीडम थी, उन्होंने वाहियात बातें कर ली, हम ना सुने, उनका बहिष्कार करें हमारा अख्तियार है !
देखा जाए तो स्थिति बड़ी विकट है इस मायने में कि नैतिक विकृति और भ्रष्टाचार की आड़ में, वर्तमान कानून इस बात की सीमा तय करता है कि क्या कहा जा सकता है और क्या नहीं, साथ ही यह भी कि सार्वजनिक चर्चा के लिए कौन से विषय और विचार उपयुक्त हैं. परंतु शालीनता और आचरण के मानकों को परिभाषित करने और फिर लागू करने की प्रक्रिया किसी एक ख़ास समुदाय या वर्ग की बपौती नहीं हो सकती. सवाल है क्या न्यायालय नागरिकों के मौलिक अधिकारों को सार्वजनिक नैतिकता के अधीन कर सकता है ?
निःसंदेह रणबीर हो या अपूर्वा हो या रैना ही हो , ये पाखंडियों की जमात है. चालाक और धूर्त भी इस कदर है कि ये वाम विचारधारा की खिलाफत कर दक्षिणपंथियों की आँखों के तारे बन गए ! परंतु चुटीले और कूल दिखाने की कोशिश में इन्हें निडर और बोल्ड कॉमेडी जो करनी थी. सो शख्स विदेशी कॉमेडियनों के नक्शे-कदम पर चलने के लिए इतना उतावला था कि उसने और उसके साथियों ने सोचा कि उनकी तरह बनने का सबसे अच्छा तरीका यही होगा कि उनके चुटकुले चोरी कर लिए जाएं. शायद उन्हें लगा कि अगर वे उनके चुटकुलों के ज्यादा भद्दे हिंदी अनुवाद कर दें, तो यह साहित्यिक चोरी नहीं कहलाएगी. फिर वे दुस्साहसी इसलिए बन गए कि इन्ही दक्षिणपंथियों को इन्हीं लोगों का स्त्री विरोधी और महिलाओं को अपमानित करने वाला चुराया हुआ चुटकुला "अगर मैं कल अपनी गर्लफ्रेंड से गर्भपात कराने को कहूं, तो उसे ‘मेरा शरीर, मेरी मर्जी’ नहीं कहना चाहिए" आपत्तिजनक नहीं लगा. फिर आया उनका घिनौना चुटकुला ! और अजब गजब हुआ कि जिस दक्षिणपंथ से ये लोग इतने गर्व के साथ अपनी पहचान जोड़ते थे, उसी ने इन्हें अचानक करारा झटका दे दिया—जबकि ये लोग अब तक उनके तलवे चाटने में लगे थे. न केवल इनके खिलाफ बड़े पैमाने पर सोशल मीडिया अभियान चलाया गया, बल्कि अब इन्हें कानूनी मुकदमों और प्रताड़ना का सामना भी करना पड़ रहा है.
और अंत में, यदि किसी की भी भावना आहत हो रही हों तो क्षमा याचना के साथ, उल्लिखित करना चाहूंगा महान महात्मा गांधी की आत्मकथा के उस अंश को जिसमें महा मानव की स्वीकरोक्ति के रूप में पश्चाताप है कि "अगर पशुवत वासना ने मुझे अंधा न कर दिया होता, तो मैं अपने पिता से उनके अंतिम क्षणों में अलग होने की यातना से बच जाता". कहने का मतलब बीमार पिता की देखभाल करते हुए भी महात्मा गांधी के दिमाग में यौन संभोग की बातें चलती रहती थीं, जिसके लिए उन्हें ग्लानि भी हुई . गांधी के जीवन के सबसे विवादास्पद पहलुओं में से एक था ब्रह्मचर्य. वे लगातार इसे लेकर प्रयोग करते रहे. यहां तक कि युवा महिलाओं के साथ सोने और सामूहिक स्नान करने जैसी बातों पर कथित तौर पर कस्तूरबा के अलावा आश्रम के बाकी लोग भी नाराज रहने लगे थे. उनके बारे में अलग-अलग लोगों ने चिट्ठियों या किताबों में दावा किया है कि वे इसे लेकर इतने एक्सट्रीम हो गए थे कि कम उम्र स्त्रियों के साथ सोने या नग्न होने से परहेज नहीं करते थे. कथित तौर पर इस तरह से वे खुद को परखते थे कि वे अपनी सोच में कितने दृढ़ हैं. कहने का मतलब बीमार पिता की देखभाल करते हुए भी महात्मा गांधी के दिमाग में यौन संभोग की बातें चलती रहती थीं, जिसके लिए उन्हें ग्लानि भी होती थी. उल्लिखित सिर्फ इसलिए किया है कि निश्चित ही इन पॉडकास्टरों को इनकी विकृत बातें , भले ही उन्होंने विदेशी कॉमेडियनों की नक़ल ही की हो, ग्लानि दे रही होगी ! बस, इतना ही काफी है ! ऑन ए लाइटर नोट , महापुरुष की आत्मकथा में फूट पड़ी ; इन बेचारों ने ग्लानि को एक्सप्लॉइट कर लिया !
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