क्या आर्थिक मोर्चे पर भारत की वास्तविक स्थिति को जरूरत से ज्यादा सकारात्मकता से आंका जा रहा है ?

हिंदी में कहावत है सावन के अंधे को हर तरफ हरा ही हरा दिखाई देता है. राइट विंग के नेताओं, बुद्धिजीवियों और समर्थकों ने मुग़ालता पाल लिया है कि लगभग डेढ़ अरब की आबादी वाला भारत इतना बड़ा बाजार है कि सबको उसकी जरूरत है. परंतु देश की आर्थिक हकीकत कुछ और ही है. क्या डेढ़ अरब लोगों का बाजार है ? बिल्कुल नहीं , बाजार कुछ ही लोगों का है.   

दरअसल जो दिखता है वो है नहीं ! ब्लूमवेंचर्स ने निष्कर्ष निकाला है कि भारत की आबादी बहुत बड़ी है, लेकिन असली कंज्यूमर क्लास तो बहुत ही सीमित है. सिर्फ 13-14 करोड़ भारतीय ही रियल कंज्यूमर हैं, जिनके पास मूलभूत चीजों के अलावा अन्य खर्च के लिए भी पर्याप्त पैसा है. इसके अलावा, निःसंदेह 30 करोड़ लोग इमर्ज हुए हैं, लेकिन उनकी खर्च करने की क्षमता सीमित है. स्पष्ट सी बात है एशिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के उपभोक्ता वर्ग का 'प्रसार' उतना नहीं हो रहा है जितना पोटेंशियल दिखता है.  इसका मतलब यह है कि भारत की संपन्न आबादी की संख्या में बढ़ोतरी नहीं हो रही है, बल्कि जो पहले से ही संपन्न हैं और अमीर हो रहे हैं.   

एक फील तो सबको है कि कोविड के बाद भारत की रिकवरी 'K' आकार की रही है, जहां अमीर और अमीर हुए, जबकि गरीबों की खरीदने की क्षमता और कम हुई. हालांकि इसकी शुरुआत तो महामारी के पहले ही हो चुकी थी. एक समय आभास हुआ था कि उपभोग खर्च बढ़ रहा है, लेकिन वह तो लिबरल कर्जों के बूते हो रहा था और महामारी के बाद से इस तरह के कर्जों में वृद्धि दृष्टिगोचर हो रही थी. ज्योंही रिज़र्व बैंक ने आसान और असुरक्षित कर्ज पर लगाम लगाईं, उपभोग खर्च घटने लगा. एक प्रकार से उभरते उपभोक्ता दुष्चक्र में फंस गये ; जहां खरीद क्षमता घटी, वहीँ बचत भी घट गई, कर्ज लद ही गया था सर पे ! उपभोग की हालिया मंदी इसी का नतीजा है.
डाटा भयावह है. निहित स्वार्थ के वश एक वर्ग है बुद्धिजीवियों का, अर्थशास्त्रियों का, राज नेताओं का ; जो इन डेटा को नकार देगा. तर्कों का अंबार भी लगा देंगे, परंतु यदि निष्पक्ष होकर विश्लेषण करेंगे तो सारे तर्क कुतर्क ही सिद्ध होंगे. हकीकत जो है, वही चिंता भी है. भारत के शीर्ष 10 फीसदी लोगों के पास अब देश की कुल आय का 57.7 फीसदी हिस्सा है, जबकि 1990 में यह 34 फीसदी था. वहीं, निचले 50 फीसदी लोगों की आय का हिस्सा 22.2 फीसदी से घटकर 15 फीसदी रह गया है. पिछले 10 वर्षों में मध्य वर्ग की वास्तविक आय आधी हो गई है, मध्य वर्ग संघर्ष कर रहा है. पिछले 10 वर्षों में मध्य वर्ग की वास्तविक आय आधी हो गई है, जिससे बचत दर भी गिर गई है. भारतीय रिजर्व बैंक की रिपोर्ट के मुताबिक, घरेलू शुद्ध वित्तीय बचत 50 साल के सबसे निचले स्तर पर है. कुल मिलाकर कह सकते हैं कि एक अरब भारतीयों के पास नहीं है खर्च करने के लिए पैसे !  

हो क्या रहा है हमारे यहाँ ? जिनके पास पैसे हैं, सोशल स्टेटस सिंबल के लिए या फिर भव्य जीवन शैली के लिए उन्हें बेहतर खरीदना है. नतीजन लग्जरी घरों और प्रीमियम स्मार्ट फोन की बिक्री बढ़ रही है, जबकि किफायती घरों की हिस्सेदारी पांच साल में 40 फीसदी से घटकर 18 फीसदी रह गई है. एक क्लास तेज़ी से उभर आया था, अंधाधुंध प्रीमियम दिखने लगे थे. परंतु वे तो बुलबुले थे, तेज़ी से गायब हो गए ! बोले तो बर्निंग करते करते खुद ही बर्न हो गये. 

इसी उभरती क्लास ने बाजार को भी सकारात्मक हवा दी थी. कंपनियों के पौ बारह हो रहे थे. परंतु क्षणिक ही था माहौल ! दिग्गज ब्रांडों ने मार्केट की नब्ज पकड़ी और उन्होंने स्ट्रेटेजी बदली जिसके तहत बड़े पैमाने पर वस्तुओं और सेवाओं की पेशकश पर ध्यान देने के बजाय अमीरों की ज़रूरत को पूरा करने वाले महंगे और उन्नत उत्पादों पर ध्यान केंद्रित करना शुरू कर दिया. हाल ही एक न्यूज़ थी गारमेंट सेग्मेंट में ब्रांड ज़ारा की, जिसने कभी हाई एंड प्रोडक्ट से शुरुआत की थी.  फिर उसने बड़े पैमाने की ज़रूरतों पर बहुत अधिक ध्यान केंद्रित किया. कह सकते हैं दांव उल्टा पड़ गया.  एक तरफ तो प्रीमियम कस्टमर टूट गए और दूसरी तरफ सामान्य जरूरतों में कमी आ गई. नतीजा ये हुआ कि स्टोर बंद करने शुरू कर दिए. 

अब होगा क्या ? स्पष्ट है शॉर्ट रन में राहत मिलेगी, लोग खर्च करेंगे क्योंकि एक तो रिकॉर्ड फसल उत्पादन से ग्रामीण मांग बढ़ेगी और दूसरे हालिया बजट की टैक्स छूट भी कुछ न कुछ डिमांड को ही कंट्रीब्यूट करेगी. परंतु इन द लॉन्ग रन, चीजें आसान नहीं होंगी.  

इंडियन इकोनॉमी का भविष्य छोटे व्यवसायों पर निर्भर है, जो स्केल नहीं कर पाते।  देखा जाए तो देश की तक़रीबन नब्बे फीसदी कंपनियों/प्रतिष्ठानों/व्यापारियों का काम पांच से काम कर्मचारियों से चल जाता है. कुछ ही कंपनियां है जो काम बढ़ा पाती है और 10 कर्मचारियों को हायर कर पाती है. नियमों की जटिलता और बाजार की खामियों के कारण ये व्यवसाय आगे नहीं बढ़ पाते, जिससे रोजगार और उत्पादकता पर असर पड़ता है. परेशानियां और भी हैं.  ब्रेन ड्रेन (टेलेंटेड लोगों का पलायन) चरम पर है जिसकी वजह से देश की इनोवेशन कैपेसिटी कम से कमतर होती जा रही है.  पार्टियों के भारी भरकम चुनावी खर्चों और व्यक्तिगत लाभ और वित्तीय महत्वाकांक्षा की वजह से सरकार एंटी बिज़नेस बिग शॉट्स होना अफ़्फोर्ड नहीं कर सकती. सो बड़ी कंपनियों को फायदा पहुंचाने वाली नीतियां बनती है और कभी कभार बाजार के सर्वागीण विकास के नजरिये से कोई बदलाव किये गए तो यही जायंट उठ खड़े होते हैं, तिकड़म भिड़ाते हैं. तभी तो स्टार्टअप इकोसिस्टम को धक्का लगने लगा है. एक और ख़ास तब्दीली हो रही है बिज़नेस इकोसिस्टम में ; मगरमच्छ इस कदर डेस्पेरेट हो गए हैं कि छोटी छोटी मछलियों को निगलने लगे हैं. अब देखिये ना टाटा का जुडियो तमाम छोटे छोटे गारमेंट निर्माताओं और व्यापारियों को निगल रहा है.  किराना बाजार पर रिलायंस ने इस कदर पकड़ बना ली है कि मोहल्ले दर मोहल्ले किराना दुकानदार मक्खी मार रहे हैं, जो भी एक दो कर्मचारी थे उनकी भी छुट्टी कर अकेला दुकानदार फिलहाल तो दुकान खोल रहा है, लेकिन कब तक ? 
इसके अलावा, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और ऑटोमेशन सफेदपोश नौकरियों के लिए खतरा बन रहे हैं. भारत की अर्थव्यवस्था सेवा क्षेत्र पर निर्भर है और अगर ये ट्रेंड जारी रहे, तो उपभोक्ता मांग पर बुरा असर पड़ सकता है. सरकार की आर्थिक समीक्षा में भी इस खतरे का जिक्र किया गया है.      

विश्व बैंक ने सुझाव दिया है कि भारत को छोटे और मध्यम उद्यमों के लिए नियमों को आसान बनाना चाहिए, क्रेडिट की पहुंच बढ़ानी चाहिए और इनोवेशन को प्रोत्साहित करना चाहिए. भारत को आर्थिक ठहराव से बाहर निकलने के लिए बड़े सुधारों की जरूरत है. समृद्धि को व्यापक बनाना, छोटे व्यवसायों को मजबूत करना और समावेशी अर्थव्यवस्था बनाना अहम होगा. अगर ऐसा नहीं हुआ तो दुनिया की तीसरी बड़ी इकोनॉमी बनकर भी विकसित देश नहीं होगा !  

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Prakash Jain

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